तुम सौं कछु दुराव है मेरौ।
कहाँ कान्ह कहँ मैं सुनि सजनी, ब्रज-घर-घर है घेरौ।
और कहत सब मोहिं न ब्यापै, तुमहूँ कहौ यह बानी।
आदर नहीं कियौ याही तैं, तुम पर अतिहिं रिसानी।।
हम तौ नहीं कह्यौ कछु तोसौं ताही पर रिस करती।
सूर तबहिं हमसौं जौ कहती, तेरी घाँ ह्वैं लरती।।1732।।