तुम लछिमन या कुंज-कुटी मैं देखौ जाइ निहारि।
कोउ इक जीव नाम मम लै-लै उठत पुकारि-पुकारि।
इतनी कहत कंध तैं कर गहि लीन्हौ धनुष सँभारि।
कृपा निधान नाम हित धाए, अपनी विपति बिसारि।
अहो बिहंग कहौ अपनौ दुख, पूछत ताहि खरारि।
किहिं मति मूढ़ हत्यौ ननु तेरौ, किघौं बिछोही नारि।
श्रीरघुनाथ-रमनि, जग-जननी, जनक-नरेस-कुमारि।
ताकौं हरन कियौ दसकंघर, हौं तिहिं लग्यौ गुहारि।
इतनी सुनि कृपाल कोमल प्रभु, दियौ धनुष कर झारि।
मानौ सूर प्रान लै रावन गयौ देह कौं डारि॥65