तुम मेरी प्रभुता बहुत करी।
परम गँवार ग्वाल पसुपालक, नीच दसा लै उच्च धरी।।
रोग दोष सताप जनम के, प्रगटत ही तुम सबै हरी।
अष्ट महा सिधि और नवौ निधि, कर जोरै मेरे द्वार खड़ी।।
तीनि लोक अरु भुवन चतुर्दस, वेद पुराननि सही परी।
‘सूरदास’ प्रभु अपने जन को, देत परम सुख घरी घरी।। 3123।।