तुम पावत हम घोष न जाहिं।
कहा जाइ लैहैं हम ब्रज, यह दरसन त्रिभुवन नाहिं।।
तुमहूँ तैं ब्रज हितू न कोऊ, कोटि कहौ नहिं मानैं।।
काके पिता, मातु हैं काकी, काहूँ हम नहिं जानै।।
कैसौ धर्म, पाप है कैसौ, आस निरास करावत।।
हम जानैं केवल तुमहीं कौं, और बृथा संसार।।
सूर स्याम निठुराई तजियै, तजियै बचन-बिकार।।1021।।