तुम तौ अपनै ही मुख झूठे।
निरगुन छवि हरि बिनु क्यौ पावै, क्यौ आँगुरी अँगूठे।।
निकट रहत पुनि दूरि बतावत, हौ रस माहँ अपूठे।
द्वै तरँग द्वै नाव पाँव धरि, ते कहि कौन न मूठे।।
हमकौ मिले बरष द्वादस, दिन चारिक तुमसौ तूठे।
‘सूर’ आपने प्राननि खेलै, ऊधौ खेलै रूँठे।।3891।।