सरद सुहाई आई राति 3 -सूरदास

सूरसागर

दशम स्कन्ध

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राग धनाश्री


तुम तैं को अति जान है।
श्रीमुख बचन सुनत बिलखाइ। ब्याकुल धरनि परीं मुरझाइ।।
रास रसिक गुन गाइ हो।
दारुन चिंता बढ़ी न थोर। क्रूर बचन कहे नंद-किसोर।।
और सरन सूझै नहीं।
रुदन करत नदि बढ़ी गंभीर। हरि करिया नहिं जानै पीर।।
कुच थंमन अबलंब है।
तुम्हरी रही बहुत पिय आस। बिनु अपराध न करहु निरास।।
कितौ रूखाई छांड़ियै।
निठुर बचन जनि बोलहु नाथ। निज दासिनि जनि करहु अनाथ।।
रास रसिक गुन गाइ हो।
मुख देखत सुख पावत नैन। स्रवन सिरात सुनत मृदु बैन।।
सैननि हीं सरबस हरयौ।
मंद हंसनि उपजायौ काम। अघर सुधा घुनि करि बिस्राम।।
बरषि सींच बिरहानला।
जब तैं हम पेखे ये पाइ। तब तैं और न कछू सुहाइ।।
कहौ घोष हम जाहिं क्यौं?
सजन बंधु की करिहैं कानि। तुम बिछुरत पिय आतम हानि।।
रास रसिक गुन गाइ हो।
बेनु बजाइ बुलाई नारि। सहि आई कुल सबकी गारि।।
मन मधुकर लंपट भयौ।
सोइ सुंदर चतुर-सुजान। आरज-पंथ तजै सुनि गान।।
तिनि देखत पुरुषहुँ लजै।
बहुत कहा बरनीं यह रूप। और न त्रिभुवन सरिस अनूप।।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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