तुम जु कहत हरि ह्रदय रहत है -सूरदास

सूरसागर

दशम स्कन्ध

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राग सारंग



तुम जु कहत हरि हृदय रहत है।
कैसे होइ प्रतीति मधुप सुनि, ये इतनी जु सहत है।।
बासर रैनि कठिन बिरहागिनि, अंतर प्रान दहत है।
प्रजरि प्रजरि मनु निकसि घूम अति, नैननि नीर बहत है।।
कठिन अवज्ञा होति देह दुख, मरजादा न गहत है।
कहि अब क्यौ माने मन ‘सूरज’ ये कतै जु कहत है।। 3789।।

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