'तुम कुछ भी कहो भले, कहकर सुख पाओ।
डाँटो, दुत्कारो, पर निकुज में आओ॥
अब देखे बिना न मैं पलभर रह पाता।
तुमसे क्या कहूँ-न कुछ भी मुझे सुहाता॥
मुरली, लकुटी, प्रिय सखा, वत्स, गो-माता।
है नहीं किसी से मेरा मन हरषाता॥
मैया का मिश्री-माखन मुझे न भाता।
मन अधर-सुधा-रस-पान-हेतु बिलखाता॥
क्या भेजूँ तुम्हें सँदेश, न मैं लख पाता।
तुम मिलो तुरत, बस, एक यही मन आता॥
है प्रेम नहीं मुझमें, जो मन सरसाता।
दृग-मधुप-युगल तव मुख-पङ्कज मँडराता॥
तुम हो प्राणों की प्राण न अब तरसाओ।
मैं पैरों पड़ता, मुझे न यों छिटकाओ॥
प्राणेश्वरि! विनती सुनो मुझे अपनाओ।
दर्शन दे मुझको प्राण-दान दो, आओ॥