तुम अलि बात नहीं, कहि जानत।
निरगुन कथा बनाइ कहत नहिं, विरह विथा उर आनत।।
प्रफुलित कमल देखि उड़ि धावत, सब कुल संग लिए।
और सुमन सौ मधु जाँचत हौ, फाटि न जात हिए।।
चातक स्वाति बूँद कौ गाहक, सदा रहत इक रूप।
कह जानै दादुर जल कौ व्रत, सागर औ सम कूप।।
बात कहौ अब ऐसी जासौ, ताकै मन तुम भावहु।
‘सूर' वचन जैसौ उपदेसत तैसोई तुम पावहु।।4014।।