तुम्‍हारी माया महाप्रबल -सूरदास

सूरसागर

प्रथम स्कन्ध

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राग सारंग
गोपाल


            
तुम्‍हारी माया महाप्रबल, जिहिं सब जग बस कीन्‍हौ (हो)।
नैकु चितै, मुसक्‍याइ कै, सब कौ मन हरि लीन्‍हौ (हो)।
पहिरे राती चूनरी, सेत उपरना सोहै (हो)।
कटि लहँगा नोलौ बन्‍यौ, को जो देखि न मोहै(हो)।
चोली चतुरानन ठग्‍यौ, अमर उपरना राते (हो)।
अँतरौटा अवलोकि कै, असुर महा-मद माते (हो)।
नैकु दृष्टि जहँ परि गई, सिव-सिर टोना लागे (हो)।
जोग-जुगति बिसरी सबै काम-क्रोध-मद जागे (हो)।
लोक-लाज सब छुटि गई, उठि धाए सँग लागे (हो)।
सुनि याके उतपात कौं, सुक सनकादिक भागे (हो)।
बहुत कहाँ लौं बरनिऐ, पुरुष न उबरन पावै (हो)।
भरि सोवै सुख-नींद मैं, तहाँ सु जाइ जगावै (हो)।
एकनि कौं दरसन ठगै, एकनि के सँग सोवै (हो)।
एकनि लै मंदिर चढ़ै, एकनि विरचि विगोवै (हो)।
अकथ कथा याकी कछू, कहत नहीं कहि आई (हो)।
छैलनि कै सँग यौं फिरै, जैसैं तनु सँग छाई (हो)।
इहि बिधि इहि डह के सबै, जल-थल-नभ जिय जेते (हो)
चतुर सिरोमनि नंद-सुत, कहौ कहाँ लगि तेते (हो)।
कछु कुल-धर्म न जानई, रुप सकल जग राँच्‍यौ (हो)।
बिनु देखैं, बिनुहीं सुनै, ठगत न कोऊ बाँच्‍यौ (हो)।
इहि लाजनि मरिऐ सदा, सब कोउ कहत तुम्‍हारी (हो)।
सूर स्‍याम इहि बरजि कै, मेटौ अब कुल-गारी (हो)।।44।।
 

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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