तुम्हरे विरह व्रजनाथ राधिका नैननि नदी बढ़ी।
लीने जात निमेष कूल दोउ, एते मान चढ़ी।।
चलि न सकत गोलक नौका लौ, सीव पलक बल बोरति।
ऊर्ध्व उसाँस समीर तरंगनि, तेज तिलक तरु तोरति।।
कज्जल कीच कुचील किऐ तट, अंबर अधर कपोल।
रहे पथिक जु जहाँ सु तहाँ थकि, हस्त चरन मुख बोल।।
नाही और उपाय रमापति, बिनु दरसन क्यौ लीजै।
आँसुसलिल बूड़त सब गोकुल, ‘सूर’ स्वकर गहि लीजै।।4113।।