तुमहिं मधुप गोपाल दुहाई।
कबहुँक स्याम करत ह्याँ कौ मन, किधौ प्रीति बिसराई।।
सोई बात कहौ किन साँची, छाँड़ौ दुसह दुराई।
कहि कब हरि आवैंगे ऊधौ, करै केलि सुखदाई।।
हम अबला अज्ञान, अल्प मति, बरजत प्रीति लगाई।
करहु कृपा जन ‘सूर’ आपने, वारक दरस दिखाई।।3683।।