तरुनी निरखि हरि-प्रति-अंग।
कोउ निरखि नख-इंदु भूली कोउ चरन-जगु रंग।
कोउ निरखि नूपुर रही थमि कोउ निरखि जुग जानु।
कोउ निरखि कटि पीत कछनी मेखला रुचिकारि।
कोउ निरखि ह्रद-नाभि को छवि डारयौ तन मन वारि।
रुचिर रोमावली हरि कैं चारु उदर सुदेस।
मनौ अलि-स्रेनी बिराजति बनी एकहिं भेस।
रहीं इक टक नारि ठाढ़ी करतिं बुद्धि बिचार।
सूर आगम कियौ नभ तैं जमुन-सूच्छम-धार।।634।।