तब हरि रच्यौ दूती रूप।
गए जहँ मानिनी राधा, त्रिया स्वाँग अनूप।।
जाइ बैठे कहत मुख यह, तू इहाँ बन स्याम?
मैं सकुचि तहँ गई नाही, फिरी कही पति बाम।।
सहज बातैं कहति मानौ, अब भई कछु और।
तू इहाँ वै उहाँ बैठे, रहत एकहिं ठौर।।
कहौ मोसौं कहा उपजी, वै रटत तुम नाम।
सुनति है कछु बचन राधा, 'सूर' प्रभु बनधाम।।2813।।