तब हरि अर्जुन पहुँचे तहाँ -सूरदास

सूरसागर

दशम स्कन्ध

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राग बिलावल
अर्जुन को निज रूप दर्शन तथा शंखचूड़ पुत्र आनयन


तब हरि अर्जुन पहुँचे तहाँ। ग़ति नाही काहू की जहाँ।।
तहाँ जाइ देख्यौ इक रूप। ता-सम और न दुतिय स्वरूप।।
नैननि निरखि चकृत ह्वै गए। मन बानी दोऊ थकि रए।।
कहिबै जोग होइ तौ कहै। तहाँ कछू आकार न लहै।।
सेष नाग फन मुकुट स्थान। मनि प्रभा मनु कोटिक भान।।
हरि अर्जुन कियौ निरखि प्रनाम। मनौ तहाँ इक सब्दऽभिराम।।
तुम्हरे हेत चरित यह कियौ। बोझ पृथी कौ हरुऔ भयौ।।
आवहु तुम अब अपनै धाम। पूरन भए सुरनि के काम।।
दसौ पुत्र ब्राह्मण के दिए। हरि अर्जुन प्रनाम तब किए।।
तहँ तै पुनि द्वारावति आए। ब्राह्मन के बालक पहुँचाए।।
अर्जुन देखि चरित्र अनूप। बिस्मय बहुत भयौ सुनि भूप।।
नहिं जान्यौ मैं कहाँ सिधायौ। अरु ह्वाँ तै ह्याँ कैसै आयौ।।
हरि अर्जुन कौ जनि जन जान। लै गए तहँ न जहाँ ससि भान।।
निज स्वरूप अपनौ दरसायौ। जो काहूँ देखन नहिं पायौ।।
ऐसे है त्रिभुवन पति राइ। कहा सकै रसना गुन गाइ।।
ज्यौं सुक नृप सौ कहि समुझायौ। 'सूरदास' ताही बिधि गायौ।। 4309।।

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