तब लगि हों बैकुंठ न जैहों -सूरदास

सूरसागर

सप्तम स्कन्ध

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राग धनाश्री



तब लगि हों बैकुंठ न जैहों।
सुन प्रहलाद प्रतिज्ञा मेरी, जब लगि तब सिर छत्र न देहों।
मन-बच-कर्म जानि जिय अपनै, जहाँ-जहाँ जन तहँ-तहँ ऐहौं।
निर्गुन-सगुन होइ सब देख्यौ, तोसौं भक्त कहूँनहि पैहो।
मो देखत मो दास दुखित मो दास दुखित भयौ, यह कलंक हौ कहाँ गँवैहों।
हृदय कठोर कुलिस तै मेरौ, अब नहि दीनदयालु कहैहौं।
गहि तन हिरनकसिप कौ चीरौं, फारि उदर तिहि रुधिर नहै हौं।।
यह हित मनै कहत सूरज प्रभु, इहि कृति कौ फल तुरत चखैहों ।।5।।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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