तब नागरि जिय गर्ब बढ़ायौ।
मो समान तिय और नहीं कोउ, गिरिधर मैं हो बस करि पायौ।।
जोइ-जोइ कहति करत पिय सोइ-सोइ मेरैं ही हित रास उपायौ।
सुंदर, चतुर और नहिं मोसी, देह धरे कौ भाव जनायौ।।
कबहुँक बैठि जाति हरि-कर धरि, कबहुँ कहति मैं अति स्रम पायौ।
सूर स्याम गहि कंठ रही तिय, कंध चढ़ौं यह बचन सुनायौ।।1100।।