तबही मेरौ मन चोरयौ री जब कर मुरलि लई।
बाजत राग रागिनी उपजत तान तरग नई।।
देह दसा बिनु सुधि भई सजनी अँग अँग प्रीति रई।
तन मन प्रान ज्ञान गुन मेरौ स्यामहिं अरपि दई।।
हरि-मुख-बचन-सुधा-रस लोचन इकटक चितहि दई।
'सूरदास' प्रभु तुम्हरी दासी करि बिनु मोल लई।। 65 ।।