ज्यों ज्यों प्रभु समीपता बढ़ती -हनुमान प्रसाद पोद्दार

पद रत्नाकर -हनुमान प्रसाद पोद्दार

प्रेम तत्त्व एवं गोपी प्रेम का महत्त्व

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राग भीमपलासी - ताल कहरवा

ज्यों-ज्यों प्रभु-समीपता बढ़ती, ज्यों-ज्यों बढ़ता त्याग अमान।
त्यों-ही-त्यों होता रस उज्ज्वल मधुर उतरोत्तर अतिमान॥
शान्त, दास्य शुचि, सख्य रुचिर, वात्सल्य, मधुर रस परम उदार।
त्याग और सामीप्य उतरोत्तर बढ़ता इनमें अविकार॥
आत्मनिवेदन, अनावरण सामीप्य, मधुरतम निर्मल त्याग।
इसीलिये कहलाता ‘उज्ज्वल रस’ यह ‘मधुर’ भरा अनुराग॥
इसमें भी ‘परकीय’ अधिक उज्ज्वल ‘स्वकीय’ से शुचितम भाव।
रहता जिसमें एकमात्र प्रियतम को सुख देने का चाव॥
सर्वत्यागमय पूर्ण समर्पण, दोषबुद्धि-विरहित व्यवहार।
भोग-मोक्ष-‌इच्छा-विरहित प्रियतम-सुख केवल जीवन-सार॥

ईश्वर में न स्वकीया-स्वामी, परकीया-भाव।
एक सर्वमय सर्वरूप सच्चिदानन्दघन अविगत-भाव॥
लीला-लीलामय अभिन्न नित, नहीं भोग्य, भोक्ता, उपभोग।
त्रिपुटी-त्रिगुणरहित लीलावपु, नित्य रहित संयोग-वियोग॥
तो भी ‘महाभाव’ रस-लीला-निरत नित्य ‘रसराज’ अनूप।
नित्य अनिर्वचनीय विरोधी-गुणधर्माश्रय भगवद-रूप॥

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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