ज्ञानेश्वरी पृ. 94

श्रीज्ञानेश्वरी -संत ज्ञानेश्वर

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अध्याय-3
कर्मयोग


अर्जुन उवाच
अथ केन प्रयुक्तोऽयं पापं चरति पूरुष: ।
अनिच्छन्नपि वार्ष्णेय बलादिव नियोजित: ॥36॥

हे देव! ऐसा क्यों होता है कि ज्ञानियों की भी स्थिति बिगड़ जाती है और वे सन्मार्ग को छोड़कर इधर-उधर भटकते हुए दिखायी देते हैं? जो लोग सर्वज्ञ हो चुके हों, जो ग्राह्य और अग्राह्य का सम्यक् ज्ञान रखते हों, वे लोग किस कारण से स्वधर्म को छोड़कर परधर्म का आचरण करते हैं? जिस प्रकार कोई अन्धा व्यक्ति बीज और भूसे को छाँटकर अलग नहीं कर सकता, उसी प्रकार ग्राह्य और अग्राह्य का चुनाव करते समय कभी-कभी नेत्रवान् मनुष्यों को (ज्ञानीजनों को) भी क्यों भूल करते हुए देखा जाता है? जो लोग अपने स्वाभाविक कर्मों का त्याग कर देते हैं, वे भी संसार को अपने गले लगाकर तृप्त नहीं होते। जिन लोगों ने अरण्य (वन) में निवास किया है, वे लोग भी जनपद में आकर रहने लगते हैं। यदि वे लोग स्वयं पापों को टालने के लिये छिपकर बैठते हैं, सब प्रकार से पापों को टालने का प्रयत्न करते हैं, परन्तु पुनः बलात् उसमें नियुक्त हो जाते हैं। मन जिस चीज से घृणा करता है, वही चीज मन को घेर लेती है अर्थात् चिपक जाती है और यदि उसे कोई मना करने की चेष्टा भी करे तो वह उलटे झगड़ने लगता है। देखने में ऐसा जान पड़ता है कि इन ज्ञानीजनों पर भी बल का प्रयोग हुआ है। तब इस बल-प्रयोग की सामर्थ्य किसमें है? हे हृषीकेश! आप कृपा कर यही बात मुझे बतलाइये।[1]

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. (232-238)

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क्रम संख्या विषय पृष्ठ संख्या
पहला अर्जुन विषाद योग 1
दूसरा सांख्य योग 28
तीसरा कर्म योग 72
चौथा ज्ञान कर्म संन्यास योग 99
पाँचवाँ कर्म संन्यास योग 124
छठा आत्म-संयम योग 144
सातवाँ ज्ञान-विज्ञान योग 189
आठवाँ अक्षर ब्रह्म योग 215
नवाँ राज विद्याराज गुह्य योग 242
दसवाँ विभूति योग 296
ग्यारहवाँ विश्व रूप दर्शन योग 330
बारहवाँ भक्ति योग 400
तेरहवाँ क्षेत्र-क्षेत्रज्ञ विभाग योग 422
चौदहवाँ गुणत्रय विभाग योग 515
पंद्रहवाँ पुरुषोत्तम योग 552
सोलहवाँ दैवासुर सम्पद्वि भाग योग 604
सत्रहवाँ श्रद्धात्रय विभाग योग 646
अठारहवाँ मोक्ष संन्यास योग 681

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