ज्ञानेश्वरी पृ. 93

श्रीज्ञानेश्वरी -संत ज्ञानेश्वर

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अध्याय-3
कर्मयोग


श्रेयान्स्वधर्मों विगुण: परधर्मात्स्वनुष्ठितात् ।
स्वधर्मे निधनं श्रेय: परधर्मो भयावह: ॥35॥

अपना स्वधर्म कितना ही कठिन क्यों न जान पड़े, पर फिर भी उसका आचरण करने में ही हित है। दूसरे व्यक्ति का आचार देखने में चाहे कितना ही अच्छा क्यों न जान पड़े, तो भी हमें केवल अपना ही आचार स्थिर रखना चाहिये। मान लो कि किसी शूद्र के घर भाँति-भाँति के बढ़िया-बढ़िया पक्वान्न बने हुए हों तो क्या दुर्बल-से-दुर्बल ब्राह्मण को कभी वे पक्वान्न खाने चाहिये? इस प्रकार का अनुचित कार्य क्यों किया जाय? जो वस्तु ग्रहणीय ही न हो उसकी इच्छा ही क्यों की जाय? अथवा यदि कभी इच्छा भी जगे, तो भी क्या उस ग्रहण ने करने योग्य वस्तु को ग्रहण करना चाहिये? हे पार्थ! दूसरों के मनोहर महल देखकर अपनी बनी-बनायी झोपड़ी क्यों गिरायी जाय? परन्तु ऐसे-ऐसे प्रश्न बहुतेरे हो चुके। जिस प्रकार अपनी कुरुपा स्त्री की संगति ही अपने लिये हितकर होती है, उसी प्रकार स्वधर्म चाहे कितना ही संकट से भरा-पूरा क्यों न हो और उसका आचरण करना कितना ही दुष्कर क्यों न हो, तो भी वह हमें परलोक में सुखदायक ही होता है।

शक्कर और दूध की मधुरता जगत्-विख्यात ही है। पर कृमि-रोग से ग्रसित व्यक्ति के लिये इनका सेवन हारिकारक ही होता है। अब भला तुम्हीं बतलाओ कि क्या कृमिरोगी को इनका सेवन करना चाहिये? इस पर भी यदि वह कृमि-रोगी इनका सेवन करेगा तो उसकी सुख की इच्छा सदा-सदा के लिये अधूरी ही रहेगी, कारण कि अन्त में वह दूध और चीनी का सेवन उसके लिये कुपथ्य ही साबित होगा। यदि हमारी यह इच्छा हो कि हमारा हित हो, तो हमें ऐसे कर्मों को कभी नहीं करना चाहिये जो दूसरे लोगों के लिये भले ही उचित हों, पर स्वयं हमारे लिये अनुचित हों। यदि स्वधर्म का अनुष्ठान करते-करते जीवन भी चला जाय, तो भी वह अच्छा है, कारण कि वह लोक और परलोक-इन दोनों में ही सदा श्रेष्ठ ही सिद्ध होगा।” यही सब बातें सुर-शिरोमणि श्रीशांर्गपाणि ने कहीं। तब अर्जुन ने विनती की कि हे देव! आपने जो कुछ कहा, वह सब मैंने अच्छी तरह सुना। फिर भी मेरे मन में कुछ विचार उत्पन्न हुए हैं, जिन्हें मैं आपसे पूछता हूँ।[1]

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. (219-231)

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क्रम संख्या विषय पृष्ठ संख्या
पहला अर्जुन विषाद योग 1
दूसरा सांख्य योग 28
तीसरा कर्म योग 72
चौथा ज्ञान कर्म संन्यास योग 99
पाँचवाँ कर्म संन्यास योग 124
छठा आत्म-संयम योग 144
सातवाँ ज्ञान-विज्ञान योग 189
आठवाँ अक्षर ब्रह्म योग 215
नवाँ राज विद्याराज गुह्य योग 242
दसवाँ विभूति योग 296
ग्यारहवाँ विश्व रूप दर्शन योग 330
बारहवाँ भक्ति योग 400
तेरहवाँ क्षेत्र-क्षेत्रज्ञ विभाग योग 422
चौदहवाँ गुणत्रय विभाग योग 515
पंद्रहवाँ पुरुषोत्तम योग 552
सोलहवाँ दैवासुर सम्पद्वि भाग योग 604
सत्रहवाँ श्रद्धात्रय विभाग योग 646
अठारहवाँ मोक्ष संन्यास योग 681

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