श्रीज्ञानेश्वरी -संत ज्ञानेश्वर
अध्याय-3
कर्मयोग
साधारणतः यदि हम इन्द्रियों को उनकी इच्छा के अनुसार विषयों को सुलभ कराते चलें तो चित्त में सचमुच सन्तोष उत्पन्न होता है, परन्तु जब कोई यात्री किसी नगर से अपनी यात्रा का शुभारम्भ करता है और मार्ग में उसे किसी अच्छे-भले आदमी के वेष में कोई धोखेबाज मिल जाता है, तब कुछ देर के लिये-जब तक यात्री भली-भाँति रक्षित रास्ते पर रहता है, तब तक-उस धोखेबाज का साथ भी सुखदायक प्रतीत होता है अथवा किसी अवसर पर कदाचित् भूल से विष की मधुरता भी मनुष्य को रुचिकर लग सकती है। उस समय यदि परिणाम के विषय में न सोचा जाय तो जिस प्रकार उस भूल से मनुष्य के प्राण-पखेरू उड़ जाते हैं, उसी प्रकार जो विषय-वासना इन्द्रियों में होती है, वह सहज में मनुष्य को सुख का चसका लगा देती है। जिस प्रकार मछली फँसाने का काँटा (बंसी) मांस की सहायता से मछली को भ्रमित कर देता है, किन्तु उस मछली को यह जानकारी ही नहीं रहती कि इस मांस के भीतर जानलेवा काँटा है, क्योंकि बंसी का वह काँटा मांस से ढँके होने के कारण दिखायी नहीं देता है, ठीक उसी प्रकार की बात इन विषयों के सम्बन्ध में भी है। विषयों की आशामात्र से ही मनुष्य क्रोधाग्नि के अधीन हो जाता है। जिस प्रकार व्याध जान-बूझकर अपने आखेट को (हरिन को मारने के उद्देश्य से) चतुर्दिक् घेरकर उस जगह पर ले जाता है, जिस जगह पर उसका आखेट सफल हो सकता है। ठीक उसी प्रकार विषय-वासनाओं का भी यही काम है कि वे बुद्धि को पकड़ कर नष्ट कर डालती हैं। इसलिये हे पार्थ! काम और क्रोध-इन दोनों को ही महाघातक समझो। तुम कभी भी इनकी संगति न करो। तुम इन दोनों का आश्रय ग्रहण न करो। तुम अपने मन में काम और क्रोध की स्मृति भी मत आने दो। निजवृत्ति (आत्मसुख) के अनुभव का रस नष्ट मत होने दो।[1] |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ (210-218)
संबंधित लेख
क्रम संख्या | विषय | पृष्ठ संख्या |