ज्ञानेश्वरी पृ. 91

श्रीज्ञानेश्वरी -संत ज्ञानेश्वर

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अध्याय-3
कर्मयोग


सदृशं चेष्टते स्वस्या: प्रकृतेर्ज्ञानवानपि ।
प्रकृतिं यान्ति भूतानि निग्रह: किं करिष्यति ॥33॥

किसी ज्ञानी पुरुष के लिये यह कदापि उचित नहीं है कि वह मनोरंजन के लिये अत्यन्त ही उत्सुकतापूर्वक इन इन्द्रियों का लाड़-प्यार करे और इनका उत्साह बढ़ावे। भला तुम्हीं बतलाओ कि क्या कभी सर्प के साथ खेला जा सकता है? अथवा क्या कभी व्याघ्र के साथ उठना-बैठना अन्त तक पूरा होगा? अथवा क्या कोई कालकूट विष पीकर उसे पचा सकता है? देखो, यदि खेल में ही कहीं आग लग जाय तो फिर जब वह भड़क जायगी, तब उसका नियन्त्रण नहीं हो सकता। इसी प्रकार इन्द्रियों का लाड़-प्यार करने और सदा उनके चक्कर में पड़े रहने से भयंकर संकट आ खड़ा होता है। यानी इन्द्रियों को लाड़-प्यार नहीं करना चाहिये।

हे अर्जुन! वास्तव में यदि यह शरीर दूसरों के अधीन है तो फिर इसके लिये नाना प्रकार की भोग-सामग्री क्यों इकट्ठा की जाय? हम नाना प्रकार के आपदाओं-संकटों को सहकर अनेक प्रकार के विषयों का संग्रह क्यों करें? हम दिन-रात एक करके उन विषयों से इस शरीर का पालन-पोषण क्यों करते रहें? भाँति-भाँति के कष्टों को झेलकर तथा नाना प्रकार का ऐश्वर्य प्राप्त करके भी इस ऐश्वर्य के सम्पादन के लिये स्वधर्म को भी भूलकर किसलिये इस शरीर को पुष्ट करें? यह शरीर तो पाँच तत्त्वों से मिलकर बना हुआ है और फिर अन्त में यह इन्हीं पाँच तत्त्वों में ही मिल जायगा। जब वह शरीर इस प्रकार पंचतत्त्व में विलीन हो जायगा, तो फिर हमें अपने श्रम का फल कहाँ मिलेगा? अर्थात् किये हुए श्रम का भाग कहाँ ढूँढेंगे। अत: एकमात्र शरीर का ही पोषण करना आत्मघात के सिवा कुछ भी नहीं है। इसलिये हे पार्थ! केवल शरीर के ही पोषण में तुम कभी अपने मन को मत रमाओ। इसमें चित्त लगाना सर्वथा अनुचित ही है।[1]

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. (202-209)

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क्रम संख्या विषय पृष्ठ संख्या
पहला अर्जुन विषाद योग 1
दूसरा सांख्य योग 28
तीसरा कर्म योग 72
चौथा ज्ञान कर्म संन्यास योग 99
पाँचवाँ कर्म संन्यास योग 124
छठा आत्म-संयम योग 144
सातवाँ ज्ञान-विज्ञान योग 189
आठवाँ अक्षर ब्रह्म योग 215
नवाँ राज विद्याराज गुह्य योग 242
दसवाँ विभूति योग 296
ग्यारहवाँ विश्व रूप दर्शन योग 330
बारहवाँ भक्ति योग 400
तेरहवाँ क्षेत्र-क्षेत्रज्ञ विभाग योग 422
चौदहवाँ गुणत्रय विभाग योग 515
पंद्रहवाँ पुरुषोत्तम योग 552
सोलहवाँ दैवासुर सम्पद्वि भाग योग 604
सत्रहवाँ श्रद्धात्रय विभाग योग 646
अठारहवाँ मोक्ष संन्यास योग 681

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