श्रीज्ञानेश्वरी -संत ज्ञानेश्वर
अध्याय-3
कर्मयोग
किसी ज्ञानी पुरुष के लिये यह कदापि उचित नहीं है कि वह मनोरंजन के लिये अत्यन्त ही उत्सुकतापूर्वक इन इन्द्रियों का लाड़-प्यार करे और इनका उत्साह बढ़ावे। भला तुम्हीं बतलाओ कि क्या कभी सर्प के साथ खेला जा सकता है? अथवा क्या कभी व्याघ्र के साथ उठना-बैठना अन्त तक पूरा होगा? अथवा क्या कोई कालकूट विष पीकर उसे पचा सकता है? देखो, यदि खेल में ही कहीं आग लग जाय तो फिर जब वह भड़क जायगी, तब उसका नियन्त्रण नहीं हो सकता। इसी प्रकार इन्द्रियों का लाड़-प्यार करने और सदा उनके चक्कर में पड़े रहने से भयंकर संकट आ खड़ा होता है। यानी इन्द्रियों को लाड़-प्यार नहीं करना चाहिये। हे अर्जुन! वास्तव में यदि यह शरीर दूसरों के अधीन है तो फिर इसके लिये नाना प्रकार की भोग-सामग्री क्यों इकट्ठा की जाय? हम नाना प्रकार के आपदाओं-संकटों को सहकर अनेक प्रकार के विषयों का संग्रह क्यों करें? हम दिन-रात एक करके उन विषयों से इस शरीर का पालन-पोषण क्यों करते रहें? भाँति-भाँति के कष्टों को झेलकर तथा नाना प्रकार का ऐश्वर्य प्राप्त करके भी इस ऐश्वर्य के सम्पादन के लिये स्वधर्म को भी भूलकर किसलिये इस शरीर को पुष्ट करें? यह शरीर तो पाँच तत्त्वों से मिलकर बना हुआ है और फिर अन्त में यह इन्हीं पाँच तत्त्वों में ही मिल जायगा। जब वह शरीर इस प्रकार पंचतत्त्व में विलीन हो जायगा, तो फिर हमें अपने श्रम का फल कहाँ मिलेगा? अर्थात् किये हुए श्रम का भाग कहाँ ढूँढेंगे। अत: एकमात्र शरीर का ही पोषण करना आत्मघात के सिवा कुछ भी नहीं है। इसलिये हे पार्थ! केवल शरीर के ही पोषण में तुम कभी अपने मन को मत रमाओ। इसमें चित्त लगाना सर्वथा अनुचित ही है।[1] |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ (202-209)
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