ज्ञानेश्वरी पृ. 90

श्रीज्ञानेश्वरी -संत ज्ञानेश्वर

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अध्याय-3
कर्मयोग


ये मे मतमिदं नित्यमनुतिष्ठन्ति मानवा: ।
श्रद्धावन्तोऽनसूयन्तो मुच्यन्ते तेऽपि कर्मभि: ॥31॥

हे धनुर्धर! जो लोग मेरे इस निश्चित मत को आदरपूर्वक अंगीकार करते हैं। और श्रद्धापूर्वक इसके अनुसार आचरण करते हैं। वे समस्त कर्मों को करते रहने पर भी कर्म के बन्धन से कभी नहीं बँधेंगे। इसीलिये यह मत निर्विवादरूप से पालन करने के योग्य है।[1]


ये त्वेतदभ्यसूयन्तो नानुतिष्ठन्ति मे मतम् ।
सर्वज्ञानविमूढांस्तान्विद्धि नष्टानचेतस: ॥32॥

पर जो लोग माया के चक्कर में पड़े रहेंगे अर्थात् प्रकृति के अधीन होकर और इन्द्रियों का लाड़-प्यार करते हुए मेरे इस मत का अनादर करेंगे, जो इसे अवज्ञा करके ओछी दृष्टि से देखेंगे या इस मत को केवल कोरी बकवास कहेंगे, ऐसे लोगों के सम्बन्ध में तुम यह निश्चित रूप से जान लो कि वे मोह के मद से मत वाले हैं, अर्थात् मोहरूपी मदिरा से भ्रमिष्ट हुए हैं, विषयों के विष से लबालब भरे हुए हैं और अज्ञान के दलदल में फँसे हुए हैं। जैसे मृत मनुष्य के हाथ में रखा हुआ रत्न बेकार जाता है अथवा जन्म से अन्ध मनुष्य को प्रभात होने का विश्वास ही नहीं होता अथवा जैसे चन्द्रमा के उदय का कौवे के लिये कोई उपयोग ही नहीं होता, ठीक वैसे ही कर्मयोग का यह उपदेश भी मूढ़ व्यक्ति को रुचिकर नहीं लगता। यही कारण है कि वे लोग इस मत का सम्मान नहीं करते, बल्कि उलटे इसकी निन्दा करने लगते हैं। पर ऐसा होना स्वाभाविक ही है; क्योंकि पतंगा कभी दीप-प्रभा को बर्दाश्त नहीं कर सकता अथवा अब तुम्हीं बतलाओ कि क्या वह सचमुच बर्दाश्त कर सकता है? विषय-रस का पान करने वाले ऐसे मूढ़ व्यक्ति भी ठीक वैसे ही आत्मघातक होते हैं, जैसे दीपक का आलिंगन करने के लिये दीपक के पास पहुँचने वाला पतंगा उसी में जल मरता है। इसी प्रकार हे पार्थ! जो लोग परमार्थ की बातों से उद्विग्न हो जाते हों, उनसे कभी भी इस विषय में चर्चा नहीं करनी चाहिये।[2]

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. (192-193)
  2. (194-201)

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क्रम संख्या विषय पृष्ठ संख्या
पहला अर्जुन विषाद योग 1
दूसरा सांख्य योग 28
तीसरा कर्म योग 72
चौथा ज्ञान कर्म संन्यास योग 99
पाँचवाँ कर्म संन्यास योग 124
छठा आत्म-संयम योग 144
सातवाँ ज्ञान-विज्ञान योग 189
आठवाँ अक्षर ब्रह्म योग 215
नवाँ राज विद्याराज गुह्य योग 242
दसवाँ विभूति योग 296
ग्यारहवाँ विश्व रूप दर्शन योग 330
बारहवाँ भक्ति योग 400
तेरहवाँ क्षेत्र-क्षेत्रज्ञ विभाग योग 422
चौदहवाँ गुणत्रय विभाग योग 515
पंद्रहवाँ पुरुषोत्तम योग 552
सोलहवाँ दैवासुर सम्पद्वि भाग योग 604
सत्रहवाँ श्रद्धात्रय विभाग योग 646
अठारहवाँ मोक्ष संन्यास योग 681

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