श्रीज्ञानेश्वरी -संत ज्ञानेश्वर
अध्याय-3
कर्मयोग
हे धनुर्धर! जो लोग मेरे इस निश्चित मत को आदरपूर्वक अंगीकार करते हैं। और श्रद्धापूर्वक इसके अनुसार आचरण करते हैं। वे समस्त कर्मों को करते रहने पर भी कर्म के बन्धन से कभी नहीं बँधेंगे। इसीलिये यह मत निर्विवादरूप से पालन करने के योग्य है।[1]
पर जो लोग माया के चक्कर में पड़े रहेंगे अर्थात् प्रकृति के अधीन होकर और इन्द्रियों का लाड़-प्यार करते हुए मेरे इस मत का अनादर करेंगे, जो इसे अवज्ञा करके ओछी दृष्टि से देखेंगे या इस मत को केवल कोरी बकवास कहेंगे, ऐसे लोगों के सम्बन्ध में तुम यह निश्चित रूप से जान लो कि वे मोह के मद से मत वाले हैं, अर्थात् मोहरूपी मदिरा से भ्रमिष्ट हुए हैं, विषयों के विष से लबालब भरे हुए हैं और अज्ञान के दलदल में फँसे हुए हैं। जैसे मृत मनुष्य के हाथ में रखा हुआ रत्न बेकार जाता है अथवा जन्म से अन्ध मनुष्य को प्रभात होने का विश्वास ही नहीं होता अथवा जैसे चन्द्रमा के उदय का कौवे के लिये कोई उपयोग ही नहीं होता, ठीक वैसे ही कर्मयोग का यह उपदेश भी मूढ़ व्यक्ति को रुचिकर नहीं लगता। यही कारण है कि वे लोग इस मत का सम्मान नहीं करते, बल्कि उलटे इसकी निन्दा करने लगते हैं। पर ऐसा होना स्वाभाविक ही है; क्योंकि पतंगा कभी दीप-प्रभा को बर्दाश्त नहीं कर सकता अथवा अब तुम्हीं बतलाओ कि क्या वह सचमुच बर्दाश्त कर सकता है? विषय-रस का पान करने वाले ऐसे मूढ़ व्यक्ति भी ठीक वैसे ही आत्मघातक होते हैं, जैसे दीपक का आलिंगन करने के लिये दीपक के पास पहुँचने वाला पतंगा उसी में जल मरता है। इसी प्रकार हे पार्थ! जो लोग परमार्थ की बातों से उद्विग्न हो जाते हों, उनसे कभी भी इस विषय में चर्चा नहीं करनी चाहिये।[2] |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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