श्रीज्ञानेश्वरी -संत ज्ञानेश्वर
अध्याय-3
कर्मयोग
इस संसार में कर्म की बाधा उन्हीं मनुष्यों के लिये होती है, जिन पर गुणों का असर होता है और जो अपने सब काम प्रकृति के अधीन होकर करते हैं; क्योंकि गुणों के आधार से इन्द्रियाँ अपने स्वभावसिद्ध धर्म के कारण जो व्यवहार करती हैं, उन पराये व्यवहारों को ऐसा व्यक्ति बलात् अपने ऊपर लाद लेता है।[1]
अत: तुम सब प्रकार के विहित कर्म का अनुष्ठान करके मुझे समर्पित करो, परन्तु अपनी चित्तवृत्ति को सदा आत्मस्वरूप पर ही टिकाये रखो। ‘यह कर्म है’, मैं कर्ता हूँ’ और ‘इन कर्मों को किसी हेतु से करने वाला मैं हूँ’। इस प्रकार का अभिमान कभी अपने मन में मत आने दो। बस इतने से ही सारे काम सिद्ध हो जायँगे। तुम देहासक्त मत रहना, समस्त कामनाओं का परित्याग कर दो और फिर यथा समय जो भोग प्राप्त हो उन सबका उपभेाग करो। अब तुम अपना धनुष उठाओ, रथ पर चढ़ो और शान्तिचित्त से वीरवृत्ति को स्वीकार करो। इस संसार में अपनी कीर्ति को फैलाओ, स्वधर्म का मान बढ़ाओ और पृथ्वी का यह बोझ उतार दो। हे पार्थ! अब तुम समस्त शंकाओं का परित्याग कर दो और इस युद्ध में मन लगाओ। इस समय इस युद्ध के सिवा और किसी चीज की बिल्कुल चर्चा ही मत करो।[2] |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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