ज्ञानेश्वरी पृ. 89

श्रीज्ञानेश्वरी -संत ज्ञानेश्वर

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अध्याय-3
कर्मयोग


प्रकृतेर्गुणसम्मूढा: सज्जन्ते गुणकर्मसु ।
तानकृत्स्नविदो मन्दान्कृत्स्नविन्न विचालयेत् ॥29॥

इस संसार में कर्म की बाधा उन्हीं मनुष्यों के लिये होती है, जिन पर गुणों का असर होता है और जो अपने सब काम प्रकृति के अधीन होकर करते हैं; क्योंकि गुणों के आधार से इन्द्रियाँ अपने स्वभावसिद्ध धर्म के कारण जो व्यवहार करती हैं, उन पराये व्यवहारों को ऐसा व्यक्ति बलात् अपने ऊपर लाद लेता है।[1]


मयि सर्वाणि कर्माणि सन्न्यस्याध्यात्मचेतसा ।
निराशीर्निर्ममो भूत्वा युध्यस्व विगतज्वर: ॥30॥

अत: तुम सब प्रकार के विहित कर्म का अनुष्ठान करके मुझे समर्पित करो, परन्तु अपनी चित्तवृत्ति को सदा आत्मस्वरूप पर ही टिकाये रखो। ‘यह कर्म है’, मैं कर्ता हूँ’ और ‘इन कर्मों को किसी हेतु से करने वाला मैं हूँ’। इस प्रकार का अभिमान कभी अपने मन में मत आने दो। बस इतने से ही सारे काम सिद्ध हो जायँगे। तुम देहासक्त मत रहना, समस्त कामनाओं का परित्याग कर दो और फिर यथा समय जो भोग प्राप्त हो उन सबका उपभेाग करो। अब तुम अपना धनुष उठाओ, रथ पर चढ़ो और शान्तिचित्त से वीरवृत्ति को स्वीकार करो। इस संसार में अपनी कीर्ति को फैलाओ, स्वधर्म का मान बढ़ाओ और पृथ्वी का यह बोझ उतार दो। हे पार्थ! अब तुम समस्त शंकाओं का परित्याग कर दो और इस युद्ध में मन लगाओ। इस समय इस युद्ध के सिवा और किसी चीज की बिल्कुल चर्चा ही मत करो।[2]

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. (184-185)
  2. (186-191)

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क्रम संख्या विषय पृष्ठ संख्या
पहला अर्जुन विषाद योग 1
दूसरा सांख्य योग 28
तीसरा कर्म योग 72
चौथा ज्ञान कर्म संन्यास योग 99
पाँचवाँ कर्म संन्यास योग 124
छठा आत्म-संयम योग 144
सातवाँ ज्ञान-विज्ञान योग 189
आठवाँ अक्षर ब्रह्म योग 215
नवाँ राज विद्याराज गुह्य योग 242
दसवाँ विभूति योग 296
ग्यारहवाँ विश्व रूप दर्शन योग 330
बारहवाँ भक्ति योग 400
तेरहवाँ क्षेत्र-क्षेत्रज्ञ विभाग योग 422
चौदहवाँ गुणत्रय विभाग योग 515
पंद्रहवाँ पुरुषोत्तम योग 552
सोलहवाँ दैवासुर सम्पद्वि भाग योग 604
सत्रहवाँ श्रद्धात्रय विभाग योग 646
अठारहवाँ मोक्ष संन्यास योग 681

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