ज्ञानेश्वरी पृ. 88

श्रीज्ञानेश्वरी -संत ज्ञानेश्वर

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अध्याय-3
कर्मयोग


प्रकृते: क्रियमाणानि गुणै: कर्माणि सर्वश:।
अहंकारविमूढात्मा कर्ताहमिति मन्यते ॥27॥

हे धनुर्धर! देखो! यदि दूसरों का बोझ अपने सिर पर रख लिया जाय तो उसके नीचे क्यों न दबेंगे? बस, इसी न्याय से प्रकृति के धर्म से पैदा होने वाले अच्छे-बुरे सभी कर्म मूर्ख व्यक्ति बुद्धि के भ्रम के कारण स्वयं को ही उनका कर्ता समझकर अपने ऊपर लाद लेता है। जो ऐसा अहंकारी और संकुचित विचार वाला अर्थात् देहाभिमान धारण करने वाला एवं मूढ़ हो, उसे परमार्थ की इस गूढ़ता की शिक्षा नहीं देनी चाहिये, पर अब छोड़ो इन सब बातों को। हे अर्जुन! अब मैं तुम्हें यह बतलाता हूँ कि इस समय किस बात में तुम्हारा हित है। ध्यानपूर्वक सुनो।[1]


तत्त्ववित्तु महाबाहो गुणकर्मविभागयो: ।
गुणा गुणेषु वर्तन्त इति मत्वा न सज्जते ॥28॥

जिस प्रकृति के द्वारा यह सब कर्म उत्पन्न होते हैं, उन कर्मों के साथ ब्रह्मनिष्ठ पुरुष का तादात्म्य नहीं रहता। वह देहाभिमान का परित्याग कर देता है। गुण और कर्म का परस्पर सम्बन्ध समझता है और केवल तटस्थवृत्ति से शरीर में रहता है। इसीलिये ऐसे व्यक्ति शरीर में रहते हुए भी कर्म के बन्धनों से ठीक उसी प्रकार नहीं बँधते, जिस प्रकार पृथ्वी पर रहने वाले प्राणियों की क्रियाएँ सूर्य को नहीं बाँध पातीं।[2]

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. (177-180)
  2. (181-183)

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श्रीज्ञानेश्वरी -संत ज्ञानेश्वर
क्रम संख्या विषय पृष्ठ संख्या
पहला अर्जुन विषाद योग 1
दूसरा सांख्य योग 28
तीसरा कर्म योग 72
चौथा ज्ञान कर्म संन्यास योग 99
पाँचवाँ कर्म संन्यास योग 124
छठा आत्म-संयम योग 144
सातवाँ ज्ञान-विज्ञान योग 189
आठवाँ अक्षर ब्रह्म योग 215
नवाँ राज विद्याराज गुह्य योग 242
दसवाँ विभूति योग 296
ग्यारहवाँ विश्व रूप दर्शन योग 330
बारहवाँ भक्ति योग 400
तेरहवाँ क्षेत्र-क्षेत्रज्ञ विभाग योग 422
चौदहवाँ गुणत्रय विभाग योग 515
पंद्रहवाँ पुरुषोत्तम योग 552
सोलहवाँ दैवासुर सम्पद्वि भाग योग 604
सत्रहवाँ श्रद्धात्रय विभाग योग 646
अठारहवाँ मोक्ष संन्यास योग 681

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