श्रीज्ञानेश्वरी -संत ज्ञानेश्वर
अध्याय-3
कर्मयोग
हे धनुर्धर! देखो! यदि दूसरों का बोझ अपने सिर पर रख लिया जाय तो उसके नीचे क्यों न दबेंगे? बस, इसी न्याय से प्रकृति के धर्म से पैदा होने वाले अच्छे-बुरे सभी कर्म मूर्ख व्यक्ति बुद्धि के भ्रम के कारण स्वयं को ही उनका कर्ता समझकर अपने ऊपर लाद लेता है। जो ऐसा अहंकारी और संकुचित विचार वाला अर्थात् देहाभिमान धारण करने वाला एवं मूढ़ हो, उसे परमार्थ की इस गूढ़ता की शिक्षा नहीं देनी चाहिये, पर अब छोड़ो इन सब बातों को। हे अर्जुन! अब मैं तुम्हें यह बतलाता हूँ कि इस समय किस बात में तुम्हारा हित है। ध्यानपूर्वक सुनो।[1]
जिस प्रकृति के द्वारा यह सब कर्म उत्पन्न होते हैं, उन कर्मों के साथ ब्रह्मनिष्ठ पुरुष का तादात्म्य नहीं रहता। वह देहाभिमान का परित्याग कर देता है। गुण और कर्म का परस्पर सम्बन्ध समझता है और केवल तटस्थवृत्ति से शरीर में रहता है। इसीलिये ऐसे व्यक्ति शरीर में रहते हुए भी कर्म के बन्धनों से ठीक उसी प्रकार नहीं बँधते, जिस प्रकार पृथ्वी पर रहने वाले प्राणियों की क्रियाएँ सूर्य को नहीं बाँध पातीं।[2] |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
संबंधित लेख
क्रम संख्या | विषय | पृष्ठ संख्या |