श्रीज्ञानेश्वरी -संत ज्ञानेश्वर
अध्याय-3
कर्मयोग
स्तनपान करना भी जिस बच्चे के लिये कष्टकर हो उसे पक्वान्न कैसे खिलाये जा सकते हैं? इसीलिये हे धनुर्धर! जैसे उस बच्चे को पक्वान्न नहीं देना चाहिये, ठीक वैसे ही जिन मनुष्यों में केवल कर्म करने की योग्यता हो, उन्हें कभी प्रहसन में भी कर्मों को छोड़ने की शिक्षा नहीं देनी चाहिये। सब प्रकार की कामना या आसक्ति से रहित ज्ञानियों के लिये भी यही उचित है कि वे ऐसे लोगों को सत्कर्म का मार्ग दिखलावें, उनके समक्ष सत्कर्म की तारीफ करें। इतना ही नहीं, स्वयं भी उसी प्रकार का आचरण करके उनके समक्ष सुन्दर आदर्श प्रस्तुत करें। इस प्रकार लोकसंग्रह करने के लिये यदि कर्मों को किया जाय तो कर्म करने वाले के लिये वे कर्म कभी बन्धनकारक नहीं होते। बहुरूपिये राजा और रानी का रूप बनाते हैं, वेष धारण करते हैं; और यद्यपि उनके मन में पुरुष-स्त्री का भाव नहीं होता, परन्तु फिर भी जैसे बहुरूपियों को अपना स्वाँग अच्छी तरह से प्रदर्शित करने के लिये स्त्री या पुरुष से भाव-भंगिमा व्यक्त् करनी पड़ती है, ठीक वैसे ही ज्ञानिजन भी ज्ञानोत्तरकाल में भी केवल लोक-सम्पादन की भावना से विकाररहित एवं कामनारहित वृत्ति से सत्कर्मों का व्यवहार करते रहते हैं।[1] |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ (172-176)
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