ज्ञानेश्वरी पृ. 85

श्रीज्ञानेश्वरी -संत ज्ञानेश्वर

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अध्याय-3
कर्मयोग


न मे पार्थास्ति कर्तव्यं त्रिषु लोकुषु किंचन ।
नानवाप्तमवाप्तव्यं वर्त एव च कर्मणि ॥22॥

हे किरीटी! मैं दूसरों की बात क्या कहूँ! मैं स्वयं भी इसी मार्ग से चलता हूँ। सम्भव है तुम यह कहोगे कि मुझ पर कोई आपदा आ पड़ती है या मुझे अपना कोई अभीष्ट पूरा करना पड़ता है, इसलिये मैं स्वकर्म का अनुष्ठान करता हूँ। परन्तु तुम यह बात तो भली-भाँति जानते हो कि इस संसार में दूसरा ऐसा कोई व्यक्ति नहीं है जो मेरे-जैसा सामर्थ्यवान् हो अथवा मेरी-जैसी पूर्णता हो। तुमने स्वयं अपनी आँखों से मेरा यह विलक्षण पराक्रम देखा है कि मैं ही गुरु सान्दीपनि के मृत पुत्रों को यमलोक से लौटा लाया था। फिर भी मैं सब विहित कर्मों का आचरण शान्तभाव से बराबर करता ही रहता हूँ।[1]


यदि ह्यहं न वर्तेयं जातु कर्मण्यतन्द्रित: ।
मम वर्त्मानुवर्तन्ते मनुष्या: पार्थ सर्वश: ॥23॥

मैं इन सब कर्मों का आचरण इस प्रकार करता हूँ जैसा कि कोई सकाम व्यक्ति करता है। इस प्रकार का आचरण करने में मेरा एक ही उद्देश्य है, वह यह कि मेरे ही अधीन रहने वाले जो प्राणी हैं, वे कहीं बहक न जायँ।[2]

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. (160-163)
  2. (164-165)

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क्रम संख्या विषय पृष्ठ संख्या
पहला अर्जुन विषाद योग 1
दूसरा सांख्य योग 28
तीसरा कर्म योग 72
चौथा ज्ञान कर्म संन्यास योग 99
पाँचवाँ कर्म संन्यास योग 124
छठा आत्म-संयम योग 144
सातवाँ ज्ञान-विज्ञान योग 189
आठवाँ अक्षर ब्रह्म योग 215
नवाँ राज विद्याराज गुह्य योग 242
दसवाँ विभूति योग 296
ग्यारहवाँ विश्व रूप दर्शन योग 330
बारहवाँ भक्ति योग 400
तेरहवाँ क्षेत्र-क्षेत्रज्ञ विभाग योग 422
चौदहवाँ गुणत्रय विभाग योग 515
पंद्रहवाँ पुरुषोत्तम योग 552
सोलहवाँ दैवासुर सम्पद्वि भाग योग 604
सत्रहवाँ श्रद्धात्रय विभाग योग 646
अठारहवाँ मोक्ष संन्यास योग 681

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