श्रीज्ञानेश्वरी -संत ज्ञानेश्वर
अध्याय-18
मोक्ष संन्यास योग
इस कलियुग में महाराष्ट्र प्रान्त में गोदावरी नदी के दक्षिण तट पर, जहाँ पर जगत् के जीवन-सूत्र मोहिनीराज का निवास है वहाँ पर परम पावन और अत्यन्त प्राचीन पंचक्रोश (नेवा सें) नामक क्षेत्र है। इस क्षेत्र में यदुवंशशिरोमणि समस्त कलानिष्णात राजा श्रीरामचन्द्र न्यायपूर्वक राज्य करते हैं। यहीं पर शंकर परम्परा के श्रीनिवृत्तिनाथ के शिष्य ज्ञानदेव ने मराठी भाषा का साज गीता पर चढ़ाया है। इस प्रकार भगवान् श्रीकृष्ण तथा अर्जुन का जो सुन्दर संवाद महाभारत के भीष्मपर्व में दिया गया है, जो उपनिषदों का सार अंश तथा सम्पूर्ण शास्त्रों की जन्मभूमि है और परमहंस योगी जिसका ठीक वैसे ही आश्रय ग्रहण करते हैं, जैसे हंस सरोवर का आश्रय ग्रहण करते हैं। श्रीनिवृत्तिनाथ का दास मैं ज्ञानदेव कहता हूँ कि यह अठारहवाँ अध्याय उस गीता नामक संवाद का पूर्ण कलश है। अब इस ग्रन्थ की पुण्य सम्पत्ति से समस्त प्राणियों को उत्तरोत्तर सब प्रकार के सुखों की प्राप्ति हो। ज्ञानेश्वर ने गीता की यह टीका शक संवत् 1212 में की है तथा सच्चिदानन्द बाबा ने प्रेमपूर्वक (पूज्य-बुद्धि से) इसे लिखा है।[1] श्रीएकनाथ महाराज ने ज्ञानेश्वरी का संशोधन करके इसके विषय में जो कुछ लिखा था, उसका भाव इस प्रकार है- श्रीशक संवत् 1506 में तारण नामक संवत्सर में श्रीजनार्दन महाराज के शिष्य एकनाथ ने आदरपूर्वक ज्ञानेश्वरी गीता को शुद्ध किया। आरम्भ से ही यह ग्रन्थ अत्यन्त शुद्ध है; पर पाठ भेदों के कारण शुद्ध ग्रन्थ में भी कुछ प्रसंग-विरुद्ध बातें आ गयी थीं। ऐसे पाठों को शुद्ध करके यह संशोधित ज्ञानेश्वरी प्रस्तुत की गयी है। मैं उन निष्कलंक ज्ञानेश्वर महाराजजी को नमन करता हूँ, जिनकी गीता की टीका को पढ़ने से अत्यन्त भावुक ग्रन्थप्रिय जनों को ज्ञान की प्राप्ति होती है। बहुत समय बाद आने वाले इस पर्व के शुभ मुहूर्त में भाद्रपद मास की कपिला षष्ठी को गोदावरी के तटपर पैठण नामक नगर में यह लेखन-कार्य सम्पन्न हुआ है। यदि कोई स्वलिखित मराठी छन्द (ओबी) इस ज्ञानेश्वरी के पाठ में सम्मिलित करे तो समझ लेना चाहिये कि उसने अमृत से भरे थाल में मानो नारियल की खोपड़ी ही रखी है।
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