ज्ञानेश्वरी पृ. 838

श्रीज्ञानेश्वरी -संत ज्ञानेश्वर

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अध्याय-18
मोक्ष संन्यास योग

भगवान् शिव ने उपमन्यु पर प्रसन्न होकर उसके लिये क्षीर-सिन्धु उत्पन्न किया था; पर उनका यह कृत्य भी यहाँ उपमायोग्य नहीं है, क्योंकि उस क्षीर-सिन्धु के गर्भ में विष भरा था। यह सत्य है कि अन्धकाररूपी निशाचर के द्वारा समस्त चराचर को ग्रस लेने पर उनकी रक्षार्थ सूर्य दौड़ा आया था और उसने उस अन्धकार का विनाश भी किया था; पर चराचर की यह भलाई करके सूर्य ने उन्हें अपनी तीव्र उष्णता का स्वाद भी चखाया। संतप्त जगत् को शान्त करने के लिये चन्द्रमा ने भी अवश्य ही अपनी चाँदनी का प्रकाश किया; पर फिर भी वह कलंकयुक्त चन्द्रमा इस ग्रन्थ की बराबरी भला किस प्रकार कर सकता है? इसीलिये इस ग्रंथ के साथ सन्तजनों ने मेरा जो संयोग करा दिया है, इसके विषय में मैं फिर यही कहता हूँ कि इसकी उपमा अन्यत्र कहीं नहीं मिलती। किंबहुना, इस ग्रन्थरूपी धर्म-कीर्तन की जो सुखपूर्वक समाप्ति हुई है, वह सब आप ही लोगों की कृपा का फल है और इस विषय में मेरे लिये एकमात्र सेवकता का तत्त्व ही अवशिष्ट रहता है अर्थात् मैंने आपलोगों की सेवा सिर्फ सेवक के रूप में ही की है।

अब विश्वात्मा वह परमेश्वर इस वाग्यज्ञ से सन्तुष्ट होकर मुझे सिर्फ इतना ही प्रसाद प्रदान करें कि खलों की कुटिलता छूट जाय, उनके अन्तःकरण में सत्कर्मों के प्रति प्रेम उत्पन्न हो तथा प्राणियों में हार्दिक मैत्री हो, पापरूपी अन्धकार का विनाश हो तथा आत्मज्ञानरूपी प्रकाश से सारा संसार उज्ज्वल हो और तब जो प्राणी जिस चीज की कामना करे, वह उसे प्राप्त हो। समस्त मंगलों की वृष्टि करने वाले सन्तजनों का जो समुदाय है, उसका इस पृथ्वी के समस्त जीवों के साथ अखण्ड मिलन हो। ये सन्तजन मानो चलते-फिरते कल्पतरु के अंकुर हैं अथवा इनको चैतन्य चिन्तामणियों का ग्राम अथवा अमृत का बोलता हुआ सिन्धु ही समझना चाहिये। ये सन्तजन मानो निष्कलंक चन्द्रमा अथवा तापशून्य सूर्य हैं तथा समस्त लोगों के सदा के सम्बन्धी हैं। आशय यह है कि तीनों लोक अद्वैत सुखसे पूर्ण होकर अखण्डरूप से उस आदि पुरुष के भजन में तल्लीन रहे और विशेषतः इस लोक में जो ऐसे जीव हैं जिनका जवीन ग्रन्थाध्ययन पर ही निर्भर रहता है, उन्हें लोक तथा परलोक-दोनों पर विजय सुख प्राप्त हो। यह सुनकर विश्वेश्वर प्रभु ने कहा कि ठीक है, यह प्रसाद तुम्हें दिया जाता है। यह वर-प्रसाद प्राप्त करके ज्ञानदेव अत्यन्त प्रसन्न हुआ है।

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क्रम संख्या विषय पृष्ठ संख्या
पहला अर्जुन विषाद योग 1
दूसरा सांख्य योग 28
तीसरा कर्म योग 72
चौथा ज्ञान कर्म संन्यास योग 99
पाँचवाँ कर्म संन्यास योग 124
छठा आत्म-संयम योग 144
सातवाँ ज्ञान-विज्ञान योग 189
आठवाँ अक्षर ब्रह्म योग 215
नवाँ राज विद्याराज गुह्य योग 242
दसवाँ विभूति योग 296
ग्यारहवाँ विश्व रूप दर्शन योग 330
बारहवाँ भक्ति योग 400
तेरहवाँ क्षेत्र-क्षेत्रज्ञ विभाग योग 422
चौदहवाँ गुणत्रय विभाग योग 515
पंद्रहवाँ पुरुषोत्तम योग 552
सोलहवाँ दैवासुर सम्पद्वि भाग योग 604
सत्रहवाँ श्रद्धात्रय विभाग योग 646
अठारहवाँ मोक्ष संन्यास योग 681

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