श्रीज्ञानेश्वरी -संत ज्ञानेश्वर
अध्याय-18
मोक्ष संन्यास योग
यदि ऐसी बात न होती तो फिर मेरे-जैसे मनुष्य में, जो न तो पढ़ता-लिखता ही है और न गुरु की शुश्रुषा ही करना जानता है, इस ग्रन्थ को रचने की योग्यता कहाँ से आती? वास्तव में यह बात आप लोग अच्छी तरह ध्यान में रखें कि श्रीगुरु ने मुझे निमित्त बनाकर इस ग्रन्थ के रचने में संसार की रक्षा ही की है; इस प्रकार मैं तो सिर्फ नाम के लिये आगे कर दिया गया हूँ। ऐसी दशा में यदि मेरी बातों में कहीं कोई कमी रह गयी हो तो हे श्रोतावृन्द, आप लोग माता की तरह प्रेम से सराबोर होकर उन सबको अपने उदर में धारण कर लें यानी मन-ही-मन समझकर उसके लिये मुझे क्षमा कर दें। शब्दों की रचना कैसे की जाती है, सिद्धान्त कैसे स्थापित किया जाता है तथा अलंकार किसे कहते हैं, इत्यादि बातों का मुझे जरा-सा भी ज्ञान नहीं है। जैसे कठपुतली अपने सूत्रधार की इच्छानुसार नृत्य करती है, ठीक वैसे ही मेरे गुरुदेव मुझे आगे रखकर ये सब बाते कह रहे हैं। यही कारण है कि मैं विशेष आग्रहपूर्वक इस ग्रन्थ के गुण-दोषों के लिये क्षमा-प्रार्थना नहीं कर रहा हूँ, क्योंकि गुरुदेव ने एकमात्र ग्रन्थ-वाहक के रूप में मेरी योजना की है और यदि आप सन्तजनों की सभा में कोई गुणहीन ही खड़ा हुआ हो और वह पूर्ण गुणों से युक्त न हुआ हो, तो वह अपने लाडलेपन के कारण उलटे आप ही लोगों पर क्रोध करेगा। यदि पारस का स्पर्श होने पर भी लोहे का लोहत्व दूर न हो तो इसमें दोष किसका है? नाले तो सिर्फ इतना ही कर सकते हैं कि वे जाकर गंगा में मिल जायँ, पर तिसपर भी यदि उन्हें गंगा का रूप प्राप्त न हो तो इसमें उनका क्या कसूर है? अतएव यदि मैं सौभाग्य से आप सन्तजनों के चरणों के सन्निकट आ पहुँचा हूँ तो फिर इस जगत् में मेरे लिये किस चीज की कमी हो सकती है? हे गुरुराज! आपने ही मुझे सन्तों की संगति प्राप्त करा दी है जिससे मेरे सारे मनोरथ पूर्ण हो गये हैं। हे सन्तजन, आप-जैसा नैहर (मयका) मुझे मिला हुआ है तथा ग्रन्थ-रचना का मेरा हठ अच्छी तरह पूरा हो गया है। |
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