श्रीज्ञानेश्वरी -संत ज्ञानेश्वर
अध्याय-18
मोक्षसंन्यास योग
यदि आभूषण धारण न किया जाय और यों ही रख दिया जाय तो भी वह सुन्दर लगता है। फिर यदि वह आभूषण पहन लिया जाय तो क्या वह उपयुक्त न होगा और अधिक सुन्दर न लगेगा? जहाँ तक मोतियों की बात है कि यदि वे स्वर्णपर जड़ दिये जायँ तो वे स्वर्ण की रंगत और भी अधिक कर देते हैं; पर यदि इस प्रकार का संयोग न भी हो तो भी यह बात नहीं है कि वे पृथक् लड़ी में पिराये रहने की स्थिति में कुछ कम सुन्दर जान पड़ते हों। वसन्तकाल में प्रस्फुटित होने वाले मोगरे की कलियाँ चाहे माला में गुथी हुई हों और चाहे यों ही रखी हों, पर उनकी सुगन्ध में किसी अवस्था में भी कोई न्यूनता नहीं होती। ठीक इसी प्रकार मैंने संस्कृत गीता-ग्रन्थ की व्याख्या ऐसे छन्दोबद्ध ढंग से की है जिसमें गेय गुण भी स्वाभाविक-रूप से विद्यमान है और बिना गेय गुण के भी जिसका रंग खूब खिलता है। इन छन्दों के प्रणयन में मैंने ब्रह्मरस से सुगन्धित किये हुए अक्षर इस प्रकार रखे हैं कि उन्हें आबाल-वृद्धपर्यन्त समस्त लोग बड़ी आसानी से समझ सकते हैं। जैसे चन्दन-वृक्ष में सुगन्धि के लिये पुष्पों की खोज नहीं करनी पड़ती, वैसे ही इस ग्रन्थ के छन्द भी श्रवणेन्द्रियों में पड़ते ही श्रवण करने वालों की समाधि लगा देते हैं। फिर यदि इसकी व्याख्या करने वाले व्याख्यान श्रवण किये जायँ तो क्यों वे मन को न लुभायेंगे? इसका पाठ करने पर भी पांडित्य का इस प्रकार का आनन्द आता है कि यदि पास में अमृत भी प्रवाहित होता हो तो उसकी तरफ भी ध्यान न जायगा। इस प्रकार सिद्धतापूर्वक इसका कवित्व इतना अधिक शान्ति उत्पन्न करता है कि इसके श्रवण ने मनन तथा निदिध्यासन पर भी विजय प्राप्त कर ली है। प्रत्येक व्यक्ति को इसके श्रवण से आत्मानन्द के अनुभव का सर्वोच्च अंश उपलब्ध होगा और उसकी सारी इन्द्रियाँ पुष्ट होंगी। चक्रवाक अपनी सामर्थ्य से चन्द्रमा का उपभोग करके सुखी होते हैं; पर उस चन्द्र की चन्द्रिका क्या अन्य किसी को प्राप्त नहीं हो सकती? |
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