ज्ञानेश्वरी पृ. 833

श्रीज्ञानेश्वरी -संत ज्ञानेश्वर

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अध्याय-18
मोक्ष संन्यास योग

यदि आगे-आगे पिता चल रहा हो और उसका अनुगमन करता हुआ पुत्र चले, तो क्या वह उस जगह पर नहीं पहुँच सकता, जिस जगह पर पिता पहुँचता है? ठीक इसी प्रकार व्यासदेव का अनुगमन कर तथा गीता के भाष्यकारों से मार्ग पूछ-पूछकर भी आगे बढ़ूँ तो मैं अयोग्य होने पर भी उचित जगह पर अवश्य पहुँच जाऊँगा। यदि मैं किसी अन्य जगह जाऊँ तो कैसे और कहाँ जाऊँगा? इसके अलावा जिससे क्षमा-गुण प्राप्त करके पृथ्वी चराचर से दुःखी नहीं होती, जिनसे अमृत प्राप्त करके चन्द्रमा सम्पूर्ण जगत् को शीतलता प्रदान करता है, जिनके अंग का तेज प्राप्त करके सूर्य अन्धकार को दूर भगाता है, जिनसे सिन्धु को जल, जल को मधुरता, मधुरता को लावण्य, वायु को शक्ति, आकाश को विस्तार, ज्ञान को उज्ज्वल राज्य-वैभव, वेदों को बोलने की शक्ति, सुख को उत्साह और यहाँ तक कि समस्त रूप तथा आकार मिलते हैं और जो सब पर उपकार करते हैं, वे समर्थ सद्गुरु श्रीनिवृत्तिनाथ मेरे हृदय-प्रान्त में प्रवेश करके विचरण कर रहे हैं।

अब यदि मैं गीता का ठीक-ठीक विवेचन मराठी (देशी) भाषा में करूँ तो इसमें आश्चर्य का क्या कारण है? गुरु द्रोणाचार्य के नाम से पहाड़ पर मिट्टी का ढेर लगाकर जिस पहाड़ी भील एकलव्य ने उसकी सेवा की थी, उस एकलव्य ने भी अपने धनुर्विद्या की निपुणता से त्रिभुवन को हिला डाला था। चन्दन के इर्द-गिर्द उपस्थित वृक्ष भी चन्दन की ही भाँति सुगन्धित हो जाते हैं। वसिष्ठ का काष्ठ-दण्ड था, वह सूर्य के साथ भी प्रतिस्पद्धा कर सका था और मैं तो सचेतन प्राणी हूँ। तिसपर मेरे श्रीगुरु इतने अधिक सामर्थ्यवान् हैं कि वे अपनी कृपा-कटाक्ष से ही अपने शिष्य को आत्मपद पर ले जाकर आसीन कर देते हैं। एक तो पहले से ही तीव्र दृष्टि हो और तिसपर सूर्य का समर्थन प्राप्त हो तो फिर भला ऐसी कौन-सी चीज है जो दृष्टि-पथ पर न आ सकती हो? इसीलिये मेरे सिर्फ श्वासोच्छ्वास भी नये-नये ग्रंथ हो सकते हैं। यह ज्ञानदेव स्वयं से पूछता है कि ऐसा कौन-सा काम है जो गुरुकृपा से सम्भव नहीं हो सकता? इसीलिये मैंने गीता का अर्थ मराठी (देशी) भाषा में ऐसे ढंग से कहा है कि उसे सभी लोग सरलता से समझ सकें। यदि कोई व्यक्ति मेरे इन मराठी बोलों को कुशलतापूर्वक गायेगा तो उसके गान की मोहिनी में कहीं कोई न्यूनता न दिखायी देगी। यही कारण है कि यह गीता गीता-गान करने वाले के लिये भूषण ही होगी। यदि कोई व्यक्ति इस शब्दों को सिर्फ पाठ करेगा तो यह भी यह गीता उसमें किसी प्रकार की कमी नहीं रहने देगी।

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क्रम संख्या विषय पृष्ठ संख्या
पहला अर्जुन विषाद योग 1
दूसरा सांख्य योग 28
तीसरा कर्म योग 72
चौथा ज्ञान कर्म संन्यास योग 99
पाँचवाँ कर्म संन्यास योग 124
छठा आत्म-संयम योग 144
सातवाँ ज्ञान-विज्ञान योग 189
आठवाँ अक्षर ब्रह्म योग 215
नवाँ राज विद्याराज गुह्य योग 242
दसवाँ विभूति योग 296
ग्यारहवाँ विश्व रूप दर्शन योग 330
बारहवाँ भक्ति योग 400
तेरहवाँ क्षेत्र-क्षेत्रज्ञ विभाग योग 422
चौदहवाँ गुणत्रय विभाग योग 515
पंद्रहवाँ पुरुषोत्तम योग 552
सोलहवाँ दैवासुर सम्पद्वि भाग योग 604
सत्रहवाँ श्रद्धात्रय विभाग योग 646
अठारहवाँ मोक्ष संन्यास योग 681

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