श्रीज्ञानेश्वरी -संत ज्ञानेश्वर
अध्याय-3
कर्मयोग
जो निरन्तर आत्मस्वरूप में रमण करता रहता है, वह देह-धर्म के चलते रहने पर भी कभी कर्मफल से लिप्त नहीं होता क्योंकि वह सदा आत्मबोध से सन्तुष्ट रहता है, उसके जीवन का कोई कर्तव्य-कर्म शेष नहीं रहता और उसके लिये कर्म का संग स्वयं ही नहीं होता। तात्पर्य यह कि वह सहज ही कर्म के संग से मुक्त हो जाता है।[1]
जिस प्रकार एक बार तृप्ति हो जाने पर उसके सब साधन स्वतः समाप्त हो जाते हैं, उसी प्रकार आत्मतुष्टि मिलते ही समस्त कर्मों का क्षय हो जाता है। पर हे अर्जुन! जब तक मन में आत्मज्ञान का उदय नहीं होता, तब तक स्वधर्माचरण के साधनों का भजन आवश्यक होता है।[2]
इसलिये तुम इन्द्रियों का नियमन करके और समस्त कामनाओं को त्यागकर विहित स्वधर्म का आचरण करो। हे पार्थ! वास्तव में वही मनुष्य इस संसार में ब्रह्म-स्थिति को प्राप्त होता है, जो निष्काम बुद्धि से स्वधर्म का आचरण करता है।[3] |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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