ज्ञानेश्वरी पृ. 83

श्रीज्ञानेश्वरी -संत ज्ञानेश्वर

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अध्याय-3
कर्मयोग


यस्त्वात्मरतिरेव स्यादात्मतृप्तश्च मानव: ।
आत्मन्येव च संतुष्टस्तस्य कार्यं न विद्यते ॥17॥

जो निरन्तर आत्मस्वरूप में रमण करता रहता है, वह देह-धर्म के चलते रहने पर भी कभी कर्मफल से लिप्त नहीं होता क्योंकि वह सदा आत्मबोध से सन्तुष्ट रहता है, उसके जीवन का कोई कर्तव्य-कर्म शेष नहीं रहता और उसके लिये कर्म का संग स्वयं ही नहीं होता। तात्पर्य यह कि वह सहज ही कर्म के संग से मुक्त हो जाता है।[1]


नैव तस्य कृतेनार्थो नाकृतेनेह कश्चन ।
न चास्य सर्वभूतेषु कश्चिदर्थव्यपाश्रय: ॥18॥

जिस प्रकार एक बार तृप्ति हो जाने पर उसके सब साधन स्वतः समाप्त हो जाते हैं, उसी प्रकार आत्मतुष्टि मिलते ही समस्त कर्मों का क्षय हो जाता है। पर हे अर्जुन! जब तक मन में आत्मज्ञान का उदय नहीं होता, तब तक स्वधर्माचरण के साधनों का भजन आवश्यक होता है।[2]


तस्मादसक्त: सततं कार्यं कर्म समाचर ।
असक्तो ह्याचरन्कर्म परमाप्नोति पूरुष: ॥19॥

इसलिये तुम इन्द्रियों का नियमन करके और समस्त कामनाओं को त्यागकर विहित स्वधर्म का आचरण करो। हे पार्थ! वास्तव में वही मनुष्य इस संसार में ब्रह्म-स्थिति को प्राप्त होता है, जो निष्काम बुद्धि से स्वधर्म का आचरण करता है।[3]

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. (146-147)
  2. (148-149)
  3. (150-151)

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क्रम संख्या विषय पृष्ठ संख्या
पहला अर्जुन विषाद योग 1
दूसरा सांख्य योग 28
तीसरा कर्म योग 72
चौथा ज्ञान कर्म संन्यास योग 99
पाँचवाँ कर्म संन्यास योग 124
छठा आत्म-संयम योग 144
सातवाँ ज्ञान-विज्ञान योग 189
आठवाँ अक्षर ब्रह्म योग 215
नवाँ राज विद्याराज गुह्य योग 242
दसवाँ विभूति योग 296
ग्यारहवाँ विश्व रूप दर्शन योग 330
बारहवाँ भक्ति योग 400
तेरहवाँ क्षेत्र-क्षेत्रज्ञ विभाग योग 422
चौदहवाँ गुणत्रय विभाग योग 515
पंद्रहवाँ पुरुषोत्तम योग 552
सोलहवाँ दैवासुर सम्पद्वि भाग योग 604
सत्रहवाँ श्रद्धात्रय विभाग योग 646
अठारहवाँ मोक्ष संन्यास योग 681

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