श्रीज्ञानेश्वरी -संत ज्ञानेश्वर
अध्याय-18
मोक्षसंन्यास योग
अथवा ये श्लोक और कोई नहीं, अपने पति परमात्मा का प्रेमालिंगन करने के लिये गीता प्रिया के द्वारा फैलायी गयी बाँहें हैं अथवा ये श्लोक गीतारूपी कमल के भृंग हैं अथवा गीतारूपी समुद्र की लहरें हैं अथवा गीतारूपी रथ के अश्व ही हैं अथवा अर्जुनरूपी सिंहस्थ पर्व उपस्थित होने के कारण इस गीतारूपी गंगा में स्नानार्थ तीर्थ ही इन श्लोकों के रूप में आ पहुँचे हैं और उन तीर्थों का मानो मेला ही लगा हुआ है अथवा ये श्लोकावलियाँ नहीं हैं, अपितु ऐसा प्रतीत होता है कि विरक्त चित्त को भी लुभाने वाले चिन्तामणियों अथवा कल्पतरुओं की पंक्तियाँ लगायी गयी हैं। इस प्रकार ये सात सौ श्लोक हैं जो कि एक से-बढ़कर-एक हैं। ऐसी दशा में यदि कोई उन सबका पृथक्-पृथक गुण-कीर्तन करना चाहे तो भला किस प्रकार कर सकता है? कामधेनु के विषय में कभी यह कहा ही नहीं जा सकता कि यह पर्याप्त दूध नहीं देती या दूध देने वाली नहीं है। दीपक के विषय में यह नहीं कहा जा सकता कि इसका आगा और पीछा किधर है। सूर्य को छोटा अथवा बड़ा तथा अमृत-सिन्धु को छिछला अथवा गहरा किस प्रकार कहा जा सकता है? ठीक इसी प्रकार गीता के किसी श्लोक के विषय में यह नहीं कहना चाहिये कि प्रथम श्लोक है अथवा यह अन्तिम श्लोक है। पारिजात पुष्प के विषय में क्या कभी यह भी कहा जा सकता है कि ये बासी हैं और वे ताजे हैं? योग्यता की दृष्टि से गीता के श्लोकों में भी कोई कमी-अधिकता नहीं है; न उसका कोई श्लोक किसी से बढ़कर है और न घटकर है। यह बात इतनी निश्चत है कि अब मैं इसका और अधिक समर्थन अथवा पृष्टि क्या करूँ। इसका प्रमुख कारण यह है कि गीता का श्लोक वाचन करते समय वाच्य-वाचक का भेद बिलकुल नहीं रह जाता। यह सर्वविदित है कि इस गीता में वाच्य तथा वाचक एकमात्र भगवान् श्रीकृष्ण ही हैं। इस गीता का अर्थ जानने से जो कुछ मिलता है, वही चीज इसका पाठ करने से भी मिलता है। यह गीताशास्त्र वाच्य और वाचक एकता इतनी शीघ्रता से करा देता है। |
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