ज्ञानेश्वरी पृ. 828

श्रीज्ञानेश्वरी -संत ज्ञानेश्वर

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अध्याय-18
मोक्षसंन्यास योग

यदि महर्षि व्यास के सत्य वचनों पर आपका विश्वास हो तो आप यह अच्छी तरह से समझ लें कि मेरा भी यह वचन अटल है। जिस जगह पर वे लक्ष्मीपति भगवान् नारायण हैं, उसी जगह पर भक्तशिरोमणि अर्जुन भी है और वे सुख तथा मंगल के लाभ के निवास हैं। यदि मेरा यह कथन मिथ्या साबित हो तो समझ लेना कि मैं महर्षि व्यास का शिष्य ही नहीं।” इस प्रकार संजय ने अपनी प्रतिज्ञा का उद्घोष करके अपने दोनों हाथ ऊपर उठाये और उन्होंने सम्पूर्ण महाभारत का सारांश एक ही श्लोक में रखकर धृतराष्ट्र के हाथ में दे दिया। अग्नि का विस्तार अपार है; पर सूर्यास्त हो जाने के कारण जो हानि होती है उसकी भरपाई करने के लिये जैसे कपास की बत्ती के अग्रभाग में उसका उपयोग करते हैं, ठीक वैसे ही सर्वप्रथम वह शब्द-ब्रह्म अथवा सवा लाख श्लोकों वाला भारत बना, जिसका कहीं अवसान नहीं है।

तदनन्तर सात सौ श्लोकों की वह गीता बनी जिसमें भारत-ग्रंथ का सम्पूर्ण सार भरा हुआ है और इन सात सौ श्लोकों में से यह अन्तिम श्लोक जिसमें महर्षि व्यास के शिष्य संजय का पूर्ण उद्गार समाया हुआ अै, सम्पूर्ण गीता का इकट्ठा किया हुआ अर्थ है। जो पुरुष इस एक ही श्लोक को अपने हृदय से लगा रखेगा वह मानो सम्पूर्ण अविद्या को पूर्णतया जीत लेगा। इस प्रकार ये सात सौ श्लोक मानो इस गीता के चलते-फिरते पैर ही हैं अथवा इन्हें पैर न समझकर गीतारूपी आकाश का परमामृत ही जानना चाहिये अथवा मुझे ऐसा प्रतीत होता है कि ये गीतारूपी आत्म-राजसभा के सात सौ खम्भे ही हैं अथवा सप्तशती यानी सात सौ श्लोकों में भगवती के विषय में निर्मित ग्रन्थ के द्वारा वर्णित यह गीता मानो भगवती देवी ही समझी जानी चाहिये। यह मोहरूपी महिषासुर को मुक्ति देकर यानी मार करके आनन्दित हुई है। अतएव जो तन-मन और वचन से इसका भक्त होगा, वह स्वानन्द अथवा आत्मानन्द के साम्राज्य का एकचक्र सम्राट होगा अथवा अविद्यरूपी अंधकार मिटाने में प्रतिज्ञापूर्ण सूर्य को भी मात करने वाले ये श्लोक भगवान् श्रीकृष्ण ने गीता के रूप में प्रकट किये हैं अथवा संसार के श्रान्त पथिकों को विश्रमास्थल देने के लिये यह गीता श्लोकाक्षररूपी द्राक्षावल्ली का मण्डप बन गयी है अथवा सात सौ श्लोकरूपी कमलों से धन्य हुई तथा सन्तरूपी भ्रमरों से भरी हुई इस गीता को भगवान् श्रीकृष्ण की मुखरूपी पुष्करिणी ही समझना चाहिये अथवा ये सात सौ श्लोक और कोई नहीं, गीता की महिमा-गान करने वाले भाट ही जान पड़ते हैं अथवा इन सात सौ श्लोकों के चतुर्दिक् गृह-निर्माण कर इस गीतारूपी सन्दर नगरी में मानो वेदसमूह ही बसने के उद्देश्य से आ गये हैं

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क्रम संख्या विषय पृष्ठ संख्या
पहला अर्जुन विषाद योग 1
दूसरा सांख्य योग 28
तीसरा कर्म योग 72
चौथा ज्ञान कर्म संन्यास योग 99
पाँचवाँ कर्म संन्यास योग 124
छठा आत्म-संयम योग 144
सातवाँ ज्ञान-विज्ञान योग 189
आठवाँ अक्षर ब्रह्म योग 215
नवाँ राज विद्याराज गुह्य योग 242
दसवाँ विभूति योग 296
ग्यारहवाँ विश्व रूप दर्शन योग 330
बारहवाँ भक्ति योग 400
तेरहवाँ क्षेत्र-क्षेत्रज्ञ विभाग योग 422
चौदहवाँ गुणत्रय विभाग योग 515
पंद्रहवाँ पुरुषोत्तम योग 552
सोलहवाँ दैवासुर सम्पद्वि भाग योग 604
सत्रहवाँ श्रद्धात्रय विभाग योग 646
अठारहवाँ मोक्ष संन्यास योग 681

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