श्रीज्ञानेश्वरी -संत ज्ञानेश्वर
अध्याय-18
मोक्ष संन्यास योग
तदनन्तर संजय ने जब पुन: कहना शुरू किया और उसके मुख से ज्यों ही राजन शब्द निकला , त्यों हीं वह अत्यधिक विस्मित हो गया और जैस्से किसी रत्न की प्रभा स्वयं उसी पर पड़कर फैलती है, ठीक वैसे ही वह स्वयं भी अपने विस्मय से पूर्णतया व्याप्त हो गया। जिस प्रकार चन्द्रोदय होने पर हिमालय के सरोवर भी स्फटिक की भाँति दृष्टिगोचर होने लगते है, पर सुर्योदय होते ही वे फिर द्रवरूप जान पड़ते है, उसी प्रकार संजय को अपने देह का ज्यों ही भान होता था, त्यों ही उसे श्रीकृष्णार्जुन-संवाद याद आ जाता था और ज्यों ही उसके स्मृति पटलपर वह संवाद आता था, त्यों ही वह फिर विस्मित होकर अपने देह का भान भुला बैठता था। बस यही क्रम उस समय निरन्तर चल रहा था। |
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