ज्ञानेश्वरी पृ. 823

श्रीज्ञानेश्वरी -संत ज्ञानेश्वर

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अध्याय-18
मोक्ष संन्यास योग


राजन्संस्मृत्य संस्मृत्य संवादमिममद्भुतम् ।
केशवार्जुनयो: पुण्यं हृष्यामि च मुहुर्मुहु: ॥76॥

तदनन्तर संजय ने जब पुन: कहना शुरू किया और उसके मुख से ज्यों ही राजन शब्द निकला , त्यों हीं वह अत्यधिक विस्मित हो गया और जैस्से किसी रत्न की प्रभा स्वयं उसी पर पड़कर फैलती है, ठीक वैसे ही वह स्वयं भी अपने विस्मय से पूर्णतया व्याप्त हो गया। जिस प्रकार चन्द्रोदय होने पर हिमालय के सरोवर भी स्फटिक की भाँति दृष्टिगोचर होने लगते है, पर सुर्योदय होते ही वे फिर द्रवरूप जान पड़ते है, उसी प्रकार संजय को अपने देह का ज्यों ही भान होता था, त्यों ही उसे श्रीकृष्णार्जुन-संवाद याद आ जाता था और ज्यों ही उसके स्मृति पटलपर वह संवाद आता था, त्यों ही वह फिर विस्मित होकर अपने देह का भान भुला बैठता था। बस यही क्रम उस समय निरन्तर चल रहा था।

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क्रम संख्या विषय पृष्ठ संख्या
पहला अर्जुन विषाद योग 1
दूसरा सांख्य योग 28
तीसरा कर्म योग 72
चौथा ज्ञान कर्म संन्यास योग 99
पाँचवाँ कर्म संन्यास योग 124
छठा आत्म-संयम योग 144
सातवाँ ज्ञान-विज्ञान योग 189
आठवाँ अक्षर ब्रह्म योग 215
नवाँ राज विद्याराज गुह्य योग 242
दसवाँ विभूति योग 296
ग्यारहवाँ विश्व रूप दर्शन योग 330
बारहवाँ भक्ति योग 400
तेरहवाँ क्षेत्र-क्षेत्रज्ञ विभाग योग 422
चौदहवाँ गुणत्रय विभाग योग 515
पंद्रहवाँ पुरुषोत्तम योग 552
सोलहवाँ दैवासुर सम्पद्वि भाग योग 604
सत्रहवाँ श्रद्धात्रय विभाग योग 646
अठारहवाँ मोक्ष संन्यास योग 681

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