ज्ञानेश्वरी पृ. 822

श्रीज्ञानेश्वरी -संत ज्ञानेश्वर

Prev.png

अध्याय-18
मोक्ष संन्यास योग


व्यासप्रसादाच्छुतवानेतद्गुह्यमहं परम् ।
योगं योगेश्वरात्कृष्णात्साक्षात्कथयत: स्वयम् ॥75॥

आन्नद की बाढ़ उतरने पर संजय ने कहा-स्वयं उपनिषदों को भी जिस ज्ञान के बारे में पता नहीं है, वही ज्ञान आज मैंने श्रीव्यास देव की कृपा से श्रवण किया। उसे श्रवण करते ही मेरे भीतर ब्रहात्व समा गया और मेरे लिये 'मैं' तथा 'तुम' की यानी द्वैत की सृष्टि का अवसान हो गया। इन समस्त योग-मार्गो का जिन में पर्यवसान होता है, उन भगवान के वचन महर्षि व्यास की बहाने स्वयं में बलपूर्वक द्वैतभाव अथवा भिन्नता की स्थापना करके आत्मविचार के विषय में जो कुछ कहा था, जो उपदेश किया था, जब उस उपदेश के सर्वोत्कृष्ट पात्र बनने की योग्यता मुझ-जैसे साधारण व्यक्ति में आ गयी, तो फिर श्रीगुरु की सामर्थ्य भला में कहाँ तक बखानुँ !

Next.png

संबंधित लेख

श्रीज्ञानेश्वरी -संत ज्ञानेश्वर
क्रम संख्या विषय पृष्ठ संख्या
पहला अर्जुन विषाद योग 1
दूसरा सांख्य योग 28
तीसरा कर्म योग 72
चौथा ज्ञान कर्म संन्यास योग 99
पाँचवाँ कर्म संन्यास योग 124
छठा आत्म-संयम योग 144
सातवाँ ज्ञान-विज्ञान योग 189
आठवाँ अक्षर ब्रह्म योग 215
नवाँ राज विद्याराज गुह्य योग 242
दसवाँ विभूति योग 296
ग्यारहवाँ विश्व रूप दर्शन योग 330
बारहवाँ भक्ति योग 400
तेरहवाँ क्षेत्र-क्षेत्रज्ञ विभाग योग 422
चौदहवाँ गुणत्रय विभाग योग 515
पंद्रहवाँ पुरुषोत्तम योग 552
सोलहवाँ दैवासुर सम्पद्वि भाग योग 604
सत्रहवाँ श्रद्धात्रय विभाग योग 646
अठारहवाँ मोक्ष संन्यास योग 681

वर्णमाला क्रमानुसार लेख खोज

                                 अं                                                                                                       क्ष    त्र    ज्ञ             श्र    अः