श्रीज्ञानेश्वरी -संत ज्ञानेश्वर
अध्याय-18
मोक्षसंन्यास योग
अर्जुन ने कहा-“हे देव, आप यह क्या पूछ रहे हैं कि मोह ने अभी तक मेरा परित्याग किया अथवा नहीं? वह तो अपने कुटुम्ब सहित समस्त भावों को लेकर अपना बोरिया-बिस्तर बाँधकर कभी का मुझे छोड़कर चलता बना। क्या यह भी कभी हो सकता है कि सूर्य आँखों के सन्निकट आकर पूछ कि तुम्हें अँधेरा दिखायी देता है? इसी प्रकार आप श्रीकृष्ण महाराज मुझे इस समय साक्षात् दृष्टिगोचर हो रहे हैं और यही क्या कम है? फिर जो चीज किसी प्रकार की चेष्टा करने पर भी मिल नहीं सकती, वह चीज आप माता से भी बढ़कर प्रेमपूर्वक मुझे जी भरकर बतला रहे हैं। अब जिस दृष्टि से आपने मुझसे यह पूछा है कि तुम्हारा मोह अभी तक दूर हुआ अथवा नहीं, उस दृष्टि से मैं कहता हूँ कि हे भगवन् आपकी कृपाप्रसाद से मैं धन्य हो गया। मैं अभी तक इसी भ्रम का शिकार था कि मैं अर्जुन हूँ, पर अब आपके कृपाप्रसाद से आपके स्वरूप का ज्ञान होनेपर मैं पूर्णतया मुक्त हो गया हूँ। अब तो प्रश्न पूछना और उत्तर देना-ये दोनों बातें ही नहीं रहीं। हे देव, आपकी कृपा से मुझे जिस आत्मबोध की उपलब्धि हुई है, वह मोह का कहीं नामोनिशान भी शेष नहीं रहने देता। अब जिस द्वैतभाव से यह प्रश्न खड़ा होता है कि अमुक कार्य करना चाहिये अथवा नहीं, वह आपको छोड़कर अन्य किसी में मुझे दृष्टिगत नहीं होता। इस विषय में अब मुझे रत्तीभर भी सन्देह नहीं है। मैं अब उस दशा में पहुँच गया हूँ जिसमें कर्म एकदम अवशिष्ट ही नहीं रह जाते। आज मैंने आपकी कृपा से ‘मैं’ यानी आत्मस्वरूप प्राप्त कर लिया है और यही कारण है कि कर्तव्य-कर्मों का एकदम अवसान हो गया है। |
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