ज्ञानेश्वरी पृ. 816

श्रीज्ञानेश्वरी -संत ज्ञानेश्वर

Prev.png

अध्याय-18
मोक्षसंन्यास योग


कच्चिदेतच्छ्र तुं पार्थ त्वयैकाग्रेण चेतसा ।
कच्चिदज्ञानसम्मोह:प्रनष्टस्ते धनंजय ॥72॥

हे पाण्डव! तुम यह बतलाओ कि ये समस्त शास्त्रीय सिद्धान्त तुमने एकाग्रचित्त से सुना है अथवा नहीं? जैसे मैंने यह ज्ञान तुम्हारे श्रवणेन्द्रियों तक पहुँचाया है, ठीक वैसे ही यह ज्ञान तुम्हारे चित्त में भी भरा है या नहीं? अथवा बीच में कोई ऐसी बात रह गयी है जो तुम्हारे ध्यान में आने से छूट गयी हो अथवा जो उपेक्षा के कारण यों ही रह गयी हो? मैंने जैसे इस ज्ञान का तुम्हें उपदेश दिया है, यदि वैसे ही यह ज्ञान तुम्हारे हृदय में बैठ गया हो, तो फिर मैं जो कुछ पूछता हूँ, उसका तुम शीघ्रातिशीघ्र उत्तर दो। मैं तुमसे यह पूछता हूँ कि तुम्हारे मन में जो मोह आत्मा-सम्बन्धी अज्ञान के कारण उत्पन्न हुआ था। और जिसने तुम्हें भ्रमित कर दिया था, तुम्हारा वह मोह अभीतक मिटा या नहीं? तुम सिर्फ यह बतलाओ कि कर्म तथा अकर्म का भेद तुम्हें दृष्टिगत होता है अथवा नहीं।” भगवान् ने अर्जुन के समक्ष यह प्रश्न उपस्थित कर उसकी ऐसी दशा बना दी थी कि वह आत्मानन्द के अद्वैत रस में निमग्न होने तथा असके विषय में कुछ पूछने के बदले फिर उसी पुराने द्वैत भावपर खिंच आया था। अर्जुन पूर्ण ब्रह्म हो गया था, पर उस समय जो कार्य सम्मुख आ पड़ा था, उसे सिद्ध करने के लिये भगवान् ने उसे भेद-भाव वाली मर्यादा का अतिक्रमण करने नहीं दिया था और नहीं तो सर्वज्ञ भगवान् श्रीकृष्ण ने अब तक जो कुछ किया और कहा था, उससे क्या वे अनभिज्ञ थे? पर अर्जुन को फिर से द्वैत के भान पर लाकर खड़ा करने के लिये ही उन्होंने उससे यह प्रश्न पूछा था। उस समय भगवान् ने अर्जुन से उपर्युक्त प्रश्न पूछ करके और उसे फिर से अर्जुनत्व के भानपर लाकर उसके मुख से उसका यह अनुभव कहलाया था कि ‘अब मैं पूर्ण हो गया हूँ।’ फिर जैसे क्षीर-सिन्धु से निकलने वाला तथा आकाश में अपनी प्रभा बिखरने वाला पूर्ण चन्द्रमा बिना पृथक् किये ही स्पष्ट रूप से पृथक् तथा निराला दृष्टिगोचर होता है, ठीक वैसे ही उस समय अर्जुन को एक ओर तो यह भी नहीं भूलता था कि मैं ब्रह्म हूँ तथा दूसरी ओर उसे दृष्टिगोचर होता था कि सम्पूर्ण जगत् ही ब्रह्म है। एक ओर तो उससे संसार छूट रहा था तथा दूसरी ओर ब्रह्मत्व भी नष्ट हो रहा था।

इस प्रकार वह ब्रह्मत्व के विषय में कुछ अच्छा-बुरा विचार करता हुआ बड़े कष्ट से एक बार फिर देहाभिमान की सीमा पर पहुँचकर रुक गया तथा वहीं वह-‘मैं अर्जुन हूँ’ यह सोचकर स्थिर हो गया। फिर अपने कम्पायमान हाथों से उठती हुई रोमावली दबाकर, स्वेद बिन्दु पोंछकर और तीव्रगति से चलते हुए श्वास के कारण कम्पित अंगों को सँभालकर, देह की घबराहट अत्यन्त निग्रहपूर्वक रोककर, दोनों आँखों से अश्रुप्रवाह के रूप में आने वाली आनन्दामृत की बाढ़ को जहाँ-का-तहाँ रोककर, अनेक प्रकार की उत्कण्ठाओं के कारण भर आने वाले गले को ठीक करके तथा उन उत्कण्ठाओं को अपने भीतर ही दबाकर, लड़खड़ाती हुई जबान को सँभालकर तथा श्वासोच्छ्वास को ठिकाने लाकर

Next.png

संबंधित लेख

श्रीज्ञानेश्वरी -संत ज्ञानेश्वर
क्रम संख्या विषय पृष्ठ संख्या
पहला अर्जुन विषाद योग 1
दूसरा सांख्य योग 28
तीसरा कर्म योग 72
चौथा ज्ञान कर्म संन्यास योग 99
पाँचवाँ कर्म संन्यास योग 124
छठा आत्म-संयम योग 144
सातवाँ ज्ञान-विज्ञान योग 189
आठवाँ अक्षर ब्रह्म योग 215
नवाँ राज विद्याराज गुह्य योग 242
दसवाँ विभूति योग 296
ग्यारहवाँ विश्व रूप दर्शन योग 330
बारहवाँ भक्ति योग 400
तेरहवाँ क्षेत्र-क्षेत्रज्ञ विभाग योग 422
चौदहवाँ गुणत्रय विभाग योग 515
पंद्रहवाँ पुरुषोत्तम योग 552
सोलहवाँ दैवासुर सम्पद्वि भाग योग 604
सत्रहवाँ श्रद्धात्रय विभाग योग 646
अठारहवाँ मोक्ष संन्यास योग 681

वर्णमाला क्रमानुसार लेख खोज

                                 अं                                                                                                       क्ष    त्र    ज्ञ             श्र    अः