ज्ञानेश्वरी पृ. 814

श्रीज्ञानेश्वरी -संत ज्ञानेश्वर

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अध्याय-18
मोक्षसंन्यास योग


य इमं परमं गुह्यं मद्भक्तेष्वभिधास्यति ।
भक्तिं मयि परां कृत्वा मामेवैष्यत्य संशय: ॥68॥

ऐसे उस निर्मल भक्तिरूपी मन्दिर में तुम इस गीता-रत्नरूपी ईश्वर की प्रतिष्ठा करो। ऐसा करने से तुम इस संसार में स्वयं मेरी ही योग्यता तक पहुँच जाओगे। अकार, उकार और मकार-इन तीन मात्राओं के कुक्षि में ‘ऊँ’ एकाक्षर के रूप में बन्द पड़ा हुआ था। इस गीता की शाखाओं से वेदों के उस मूल बीज प्रणव का विस्तार हुआ है अथवा यह समझना चाहिये कि वह गायत्री ही श्लोकों के पुष्पों तथा फलों के द्वारा अवतरित हुई है। जिस माता के लिये एक बालक के अलावा अन्य कोई न हो, उस माता को जैसे इस प्रकार का बालक प्राप्त करा दिया जाय, जिसके लिये माता के अलावा अन्य कोई गति ही न हो, ठीक वैसे ही जो व्यक्ति इस महामन्त्र से परिपूर्ण इस गीता का मेरे भक्तों के साथ प्रेमपूर्वक योग करा देगा, वह देहावसान के बाद अवश्य ही मेरे संग मिलकर एकाकार हो जायगा।


न च तस्मान्नुष्येषु कश्चिन्मे प्रियकृत्तम: ।
भविता न च मे तस्मादन्य: प्रियतरो भुवि ॥69॥

और जिस समय तक इस प्रकार का पुरुष देहरूपी अलंकार धारण करके देखने में मुझसे पृथक् रहेगा, उस समय तक वह मुझे प्राणों से भी अधिक प्रिय होगा। ज्ञानी, कर्मठ तथा तपस्वी में से सिर्फ ऐसा पुरुष मुझे जितना अधिक प्रिय होता है, हे पाण्डव, उतना अधिक प्रिय इस पृथवीपर मुझे अन्य कोई दृष्टिगोचर नहीं होता। जो भक्त-मण्डली में गीता का उपदेश करता है, जो मुझ वैभव-सम्पन्न के विषय में अपने मन में पूर्ण प्रेम तथा भक्ति रखकर शान्तिपूर्वक संतों की सभा में गीता का पाठ करता है, जो उन भक्तों को ठीक वैसे ही रोमांचित करता है, जैसे नूतन पत्तों के निकलने से वृक्ष हर्ष से रोमांचित होते हैं, जो उन्हें ठीक वैसे ही हिलाता है, जैसे मन्द पवन के झोंके के वृक्षों को हिलाते हैं, जो उनके आँखों का वैसे ही रसार्द्र करता है, जैसे उन वृक्षों के फल रसार्द्र होते हैं, जो कोयल की मधुर वाणी की भाँति गद्गद वचन बोलता है, जो भक्त-मण्डलीरूपी उद्यान में वसन्तकाल की भाँति प्रवेश करता है, जो सन्तजनों की सभा में एकमात्र मेरे स्वरूपभर ध्यान रखकर गीता के पद्यरूपी रत्नों की ठीक वैसे ही अटूट वृष्टि करता है, जैसे आकाश में चन्द्रोदय होते ही चक्रवाक का जन्म सफल होता है अथवा जैसे मयूर-ध्वनि का जवाब देता हुआ बरसात का नवीन सजल मेघ आ पहुँचता है, उस पुरुष की भाँति सचमुच मुझे अन्य कोई प्रिय नहीं है और न इसके पहले कभी कोई मेरा प्रिय था और न आगे कोई उतना अधिक प्रिय होता हुआ दृष्टिगोचर होता है। हे अर्जुन! जो सन्तों का आतिथ्य गीता के अर्थ के द्वारा करता है, उसे मैं सदा अपने हृदय में धारण किये रहता हूँ।


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क्रम संख्या विषय पृष्ठ संख्या
पहला अर्जुन विषाद योग 1
दूसरा सांख्य योग 28
तीसरा कर्म योग 72
चौथा ज्ञान कर्म संन्यास योग 99
पाँचवाँ कर्म संन्यास योग 124
छठा आत्म-संयम योग 144
सातवाँ ज्ञान-विज्ञान योग 189
आठवाँ अक्षर ब्रह्म योग 215
नवाँ राज विद्याराज गुह्य योग 242
दसवाँ विभूति योग 296
ग्यारहवाँ विश्व रूप दर्शन योग 330
बारहवाँ भक्ति योग 400
तेरहवाँ क्षेत्र-क्षेत्रज्ञ विभाग योग 422
चौदहवाँ गुणत्रय विभाग योग 515
पंद्रहवाँ पुरुषोत्तम योग 552
सोलहवाँ दैवासुर सम्पद्वि भाग योग 604
सत्रहवाँ श्रद्धात्रय विभाग योग 646
अठारहवाँ मोक्ष संन्यास योग 681

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