श्रीज्ञानेश्वरी -संत ज्ञानेश्वर
अध्याय-18
मोक्षसंन्यास योग
अतएव हे सुभद्रापति, तपस्वियों तथा भक्तों का सम्मान तो अवश्य करना चाहिये, पर जो शास्त्र-श्रवण के प्रति श्रद्धावान् न हो, उसे इस गीताशास्त्र का उपदेश कभी न देना चाहिये। अब मान लो कि किसी व्यक्ति में तपश्चर्या है, भक्ति है शास्त्र-श्रवण की अभिलाषा भी है, तो भी इस गीताशास्त्र की रचना करने वाले तथा सम्पूर्ण लोकों के मुझ प्रभु के विषय में जो प्रायः निकृष्टापूर्ण बातें कहा करता हो अथवा जो मेरे भक्तों के विषय में भी तथा स्वयं मेरे विषय में भी निन्दापूर्ण बातें कहा करता हो, उसे भी तुम गीता-श्रवणहेतु उचित पात्र न समझो। उसमें जो अन्य गुणों की सामग्री है, उसे बिना दीपज्योतिवाला रात का दीपक ही जानना चाहिये। मान लो कि किसी व्यक्ति का शरीर गौर वर्ण का है और उसकी अवस्था तरुण भी है तथा अलंकार इत्यादि से अच्छी तरह सुसज्जित भी हैं‚ पर उसका शरीर प्राणविहीन है अथवा विशुद्ध स्वर्णनिर्मित मन्दिर है, पर उसके प्रवेश द्वार पर नागिन मार्ग रोककर खड़ी है अथवा दिव्यान्न पककर तैयार हैं, पर उसमें कालकूट मिला दिया गया है अथवा मित्रता तो है, पर उसके भीतर कपट भरा हुआ है। हे सुविज्ञ, तुम यह बात अच्छी तरह ध्यान में रखो कि उन लोगों की भी ठीक इसी प्रकार की दशा होती है जिनके अन्दर तप, गुरु-भक्ति तथा बुद्धि तो भरी होती है, पर फिर भी जो मेरे भक्तों की अथवा मेरी निन्दा करते हैं। अतएव हे धनंजय, मेरे भक्तों की तथा मेरी निन्दा करने वाला व्यक्ति चाहे गुरु-भक्त, बुद्धिमान् और तपस्वी ही क्यों न हो, उससे कभी इस शास्त्र का स्पर्श भी मत होने दो। किंबहुना निन्दा करने वाला चाहे जगत्-स्रष्टा ब्रह्मासरीखा योग्य ही क्यों न हो, तो भी तुम उसके हाथों में यह गीताशास्त्र कभी विनोद में भी मत दो। अतएव हे धनुर्धर, जो नीवों में तपश्चर्या की पूर्ण भरायी भरकर उसके आधार पर गुरुभक्तिरूपी मजबूत मन्दिर बन गया है तथ्ज्ञा जिसका ज्ञान-श्रवण की अभिलाषावाला दरवाजा सर्वदा खुला रहता है और आनिन्दारूपी रत्नों से जिसका सुन्दर कलश बना है, |
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