ज्ञानेश्वरी पृ. 807

श्रीज्ञानेश्वरी -संत ज्ञानेश्वर

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अध्याय-18
मोक्ष संन्यास योग

तदनन्तर, भगवान् ने अपनी कंकणयुक्त श्यामवर्ण वाली दाहिनी भुजा फैलाकर शरणागत उस भक्तराज अर्जुन को हृदय से लगा लिया। जहाँ न पहुँच सकने के कारण बुद्धि को बगल में दबाकर वाणी पीछे लौट आती है तथा जिसका वाणी या बुद्धि से आकलन नहीं हो सकता, वही स्वरूप अर्जुन को देने के लिये भगवान् ने मानो आलिंगन का बहाना किया। अर्जुन का हृदय भगवान् श्रीकृष्ण के हृदय के साथ मिलते ही उनके हृदय का रहस्य अर्जुन के हृदय में समा गया तथा उसके द्वैतभाव का नाश होते ही भगवान् ने उसे आत्मस्वरूप कर लिया। वह प्रगाढ़ आलिंगन भी ठीक वैसे ही हुआ था जैसे एक दीपक से दूसरा दीपक जलाया जाता है। इस प्रकार द्वैत बनाये रखकर भी भगवान् ने अर्जुन को आत्मस्वरूप कर लिया था। फिर उस अर्जुन के अन्तःकरण में आनन्द की जो बाढ़ आयी, उसमें इतने बड़े भगवान् श्रीकृष्ण भी डूब गये। जिस समय एक समुद्र दूसरे समुद्र में मिलता है, उस समय जल दुगुना हो जाता है और यथेष्ट जगह पाने के लिये वह जल ऊपर आकाश में भी उछलने लगता है। भगवान् और अर्जुन के मिलन में भी ठीक वही बात हुई थी। मारे आनन्द के वे दोनों फूले नहीं समाते थे। कौन कह सकता है कि यह सम्मिलन कैसा हुआ था। किंबहुना, उस समय सम्पूर्ण विश्व मानो पूर्णतया श्रीनारायण से भर गया था। इस प्रकार वेदों का मूल सूत्र यह गीताशास्त्र समस्त अधिकारसम्पन्न और परम पवित्र भगवान् श्रीकृष्ण ने प्रकट किया था। सम्भव है आप लोगों के मन में यह शंका उत्पन्न हो कि यह गीता वेदों का मूल किस प्रकार हुई, तो मैं इसके भी सम्बन्ध में स्पष्ट विवेचन कर देता हूँ। वेदों को जन्म जिनके श्वास से हुआ, स्वयं वही सत्य संकल्प भगवान् अपने मुखारविन्द से प्रतिज्ञापूर्वक यह बात कहते हैं और इसीलिये हमारा यह कथन भी एकदम समीचीन है कि वेदों का मूल गीता है। इसका स्पष्ट विवेचन और भी तरीके से किया जा सकता है।

यदि किसी चीज का क्षय न हो और उसका सारा विस्तार किसी पदार्थ में लयरूप में संग्रहीत हो तो वह पदार्थ उस चीज का बीज ही समझा जाना चाहिये और जैसे बीज में वृक्ष विद्यमान रहता है, वैसे ही त्रिकाण्डों वाली सम्पूर्ण वेदराशि इस गीता के अन्दर पूर्णरूप से भरी हुई है। इसीलिये मुझे तो ऐसा प्रतीत होता है कि यह गीता ही वेदों का मूल बीज है और यह बात स्पष्ट रूप से दृष्टिगत भी हो सकती है। जैसे हीरे तथा माणिक्य इत्यादि के बने आभूषणों से पूरा शरीर अलंकृत होता है, ठीक वैसे ही वेदों के त्रिकाण्डात्मक भाग इस गीता में सुशोभित हो रहे हैं। वेदों के तीनों काण्ड गीता में कहाँ-कहाँ हैं इसके सम्बन्ध में अब मैं स्पष्ट रूप से बतलाता हूँ।

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क्रम संख्या विषय पृष्ठ संख्या
पहला अर्जुन विषाद योग 1
दूसरा सांख्य योग 28
तीसरा कर्म योग 72
चौथा ज्ञान कर्म संन्यास योग 99
पाँचवाँ कर्म संन्यास योग 124
छठा आत्म-संयम योग 144
सातवाँ ज्ञान-विज्ञान योग 189
आठवाँ अक्षर ब्रह्म योग 215
नवाँ राज विद्याराज गुह्य योग 242
दसवाँ विभूति योग 296
ग्यारहवाँ विश्व रूप दर्शन योग 330
बारहवाँ भक्ति योग 400
तेरहवाँ क्षेत्र-क्षेत्रज्ञ विभाग योग 422
चौदहवाँ गुणत्रय विभाग योग 515
पंद्रहवाँ पुरुषोत्तम योग 552
सोलहवाँ दैवासुर सम्पद्वि भाग योग 604
सत्रहवाँ श्रद्धात्रय विभाग योग 646
अठारहवाँ मोक्ष संन्यास योग 681

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