ज्ञानेश्वरी पृ. 806

श्रीज्ञानेश्वरी -संत ज्ञानेश्वर

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अध्याय-18
मोक्ष संन्यास योग

हे धनंजय, यदि किसी राजा के गले कोई साधारण सेविका भी आ पड़े तो वह भी राज्य-सम्पदा प्राप्त कर लेती है। फिर यदि कोई यह कहे कि मुझ विश्वेश्वर की भेंट हो जाने पर भी जीवत्व की ग्रन्थि नहीं टूटती, तो ऐसे अभद्र वचनों की ओर तुम एकदम ध्यान मत दो। मेरी सेवा मद्रूप होकर सहज में की जा सकती है; अत: तुम मेरी ऐसी ही सेवा करो, कारण कि इसी के द्वारा ज्ञान की प्राप्ति होती है। तदनन्तर, जैसे मट्ठे में से निकला हुआ नवनीत फिर कोटि उपाय करने पर भी उस मट्ठे में नहीं मिल सकता, ठीक वैसे ही जिस समय तुम अद्वैत वाली भावना से एक बार भी मेरी शरण में आ जाओगे, उस समय कोटि उपाय करने पर भी धर्म-अधर्म का बखेड़ा तुम्हें जरा-सा भी स्पर्श न कर सकेगा। लोहा यों ही रखे-रखे मिट्टी हो जाता है; पर जब एक बार पारस के संग पड़ जाता है तो वह स्वर्ण का रूप धारण कर लेता है, तब फिर उसमें कभी मल नहीं लगता अथवा यदि काष्ट का घर्षण कर उसमें स्थित अग्नि प्रकट कर ली जाय तो फिर वह अग्नि काष्ठ में छिपी नहीं रह सकती।

हे अर्जुन, क्या कभी सूर्य को भी अन्धकार दृष्टिगत होता है? अथवा क्या कभी जाग्रत् अवस्था में भी स्वप्न-भ्रम का अनुभव किया जा सकता है? ठीक इसी प्रकार मेरे साथ एक बार भी एकता स्थापित कर लेने पर मेरे स्वरूप के अलावा क्या अन्य कोई चीज अवशिष्ट रहने का कोई कारण हो सकता है? अत: तुम मेरे अलावा अन्य किसी की कल्पना भी मत करो। मैं ही तुम्हारे समस्त पाप-पुण्य होऊँगा। सारे बन्धनों का लक्षण जो पाप वास्तव में द्वैतभाव के कारण बाकी रह जाता है, वह भी मेरे ज्ञान के कारण विनष्ट हो जायगा। हे सविज्ञ, जो लवण जल में पड़ता है, वह पूर्णतया जल ही हो जाता है। इसी प्रकार यदि तुम अनन्यभाव से मेरी शरण में आओगे तो तुम भी मद्रूप ही हो जाओगे और हे धनंजय, जिस समय तुम मद्रूप हो जाओगे, उस समय स्वतः मुक्त भी हो जाओगे। तुम मुझे जान लो तो मैं अपने प्रकाश से तुम्हारी मुक्ति कर दूँगा। इसीलिये हे बुद्धिमान् पार्थ, इस समय तुम्हें चिन्ता करने की कोई आवश्यकता नहीं है। हे सुविज्ञ, तुम इस ज्ञान से युक्त होकर केवल मेरी ही शरण में आ जाओ।” विश्वस्वरूप, सर्वद्रष्टा और सर्वव्यापी भगवान् ने पार्थ से यही बातें कही थीं।

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क्रम संख्या विषय पृष्ठ संख्या
पहला अर्जुन विषाद योग 1
दूसरा सांख्य योग 28
तीसरा कर्म योग 72
चौथा ज्ञान कर्म संन्यास योग 99
पाँचवाँ कर्म संन्यास योग 124
छठा आत्म-संयम योग 144
सातवाँ ज्ञान-विज्ञान योग 189
आठवाँ अक्षर ब्रह्म योग 215
नवाँ राज विद्याराज गुह्य योग 242
दसवाँ विभूति योग 296
ग्यारहवाँ विश्व रूप दर्शन योग 330
बारहवाँ भक्ति योग 400
तेरहवाँ क्षेत्र-क्षेत्रज्ञ विभाग योग 422
चौदहवाँ गुणत्रय विभाग योग 515
पंद्रहवाँ पुरुषोत्तम योग 552
सोलहवाँ दैवासुर सम्पद्वि भाग योग 604
सत्रहवाँ श्रद्धात्रय विभाग योग 646
अठारहवाँ मोक्ष संन्यास योग 681

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