ज्ञानेश्वरी पृ. 805

श्रीज्ञानेश्वरी -संत ज्ञानेश्वर

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अध्याय-18
मोक्ष संन्यास योग


सर्वधर्मान्परित्यज्य मामेकं शरणं व्रज ।
अहं त्वा सर्वपापेभ्यो मोक्षयिष्यामि मा शुच: ॥66॥

जैसे दुःखों को आशा उत्पन्न करती है अथवा पातक की उत्पत्ति निन्दा से होती है अथवा जैसे दीनता का कारण दुर्दैव होता है, वैसे ही स्वर्ग तथा नरक प्राप्त करने वाले धर्म-अधर्म की सृष्टि अज्ञान ने की है; पर अज्ञान से उत्पन्न होने वाले उन समस्त कल्पनाओं को तुम इस ज्ञान से एकदम दूर कर दो। रस्सी को हाथ में ले लेने पर जैसे हम उस रस्सी में होने वाले सर्पाभास का त्याग कर देते हैं अथवा जैसे स्वप्न के साथ-साथ हम उसके सारे व्यवहारों का भी नाश कर देते हैं अथवा जैसे पीलिया रोग ठीक होते ही चन्द्रबिम्ब में दृष्टिगत होने वाला पीलापन भी स्वतः मिट जाता है अथवा जैसे रोग के नष्ट होने पर हमारी जिह्वा का कड़वापन स्वतः ही चला जाता है अथवा जैसे दिन के पीठ फेरते ही मृगजल भी अदृश्य हो जाता है अथवा जैसे काष्ठ के त्याग के साथ-ही-साथ अग्नि का भी त्याग आप-से-आप हो जाता है, वैसे ही जो मूल अज्ञान धर्म-अधर्म की अव्यवस्था उत्पन्न करता है, उस अज्ञान को मिटा देने पर धर्म-अधर्म के समस्त बखेड़े भी स्वतः दूर हो जाते हैं और जब अज्ञान एकदम समाप्त हो जाता है, तब स्वतः केवल मैं ही अवशिष्ट रहता हूँ।

जैसे निद्रा के संग स्वप्न का भी क्षय होने पर सिर्फ अपना ही भान शेष नहीं रह जाता है, ठीक वैसे ही अज्ञान के मिट जाने पर मेरे अलावा अन्य कुछ भी शेष नहीं रह जाता और मेरे उस केवल स्वरूप में मिलकर जीव एकदम एकाकार हो जाता है। स्वयं अपनी भी भिन्नता न रखकर साथ मिलकर एक हो जाना ही ‘मेरी शरण में आना’ कहलाता है। जैसे घट के विनष्ट होते ही उसमें स्थित आकाश आकाश में मिल जाता है, ठीक वैसे ही मेरे साथ एकता इस शरणागति से सिद्ध होती है। जैसे स्वर्णमणि स्वर्ण में अथवा तरंग जल में मिल जाती है, वैसे ही हे धनंजय, तुम भी मेरी शरण में आकर मेरे साथ मिल जाओ। हे किरीटी, और नहीं तो समुद्र के शरण में बड़वाग्नि आयी और उसने स्वयं समुद्र को ही जला डाला; ऐसी परिकल्पनाएँ तुम एकदम त्याग दो। कोई मेरी शरण में आवे और फिर भी उसमें अपने जीव होने का भाव बना रहे, यह बात एकदम उपहास का विषय है। ऐसी बातें जिस बुद्धि के कारण मुँह से निकलें, उस बुद्धि को भला लज्जा क्यों न आवे?


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क्रम संख्या विषय पृष्ठ संख्या
पहला अर्जुन विषाद योग 1
दूसरा सांख्य योग 28
तीसरा कर्म योग 72
चौथा ज्ञान कर्म संन्यास योग 99
पाँचवाँ कर्म संन्यास योग 124
छठा आत्म-संयम योग 144
सातवाँ ज्ञान-विज्ञान योग 189
आठवाँ अक्षर ब्रह्म योग 215
नवाँ राज विद्याराज गुह्य योग 242
दसवाँ विभूति योग 296
ग्यारहवाँ विश्व रूप दर्शन योग 330
बारहवाँ भक्ति योग 400
तेरहवाँ क्षेत्र-क्षेत्रज्ञ विभाग योग 422
चौदहवाँ गुणत्रय विभाग योग 515
पंद्रहवाँ पुरुषोत्तम योग 552
सोलहवाँ दैवासुर सम्पद्वि भाग योग 604
सत्रहवाँ श्रद्धात्रय विभाग योग 646
अठारहवाँ मोक्ष संन्यास योग 681

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