श्रीज्ञानेश्वरी -संत ज्ञानेश्वर
अध्याय-18
मोक्ष संन्यास योग
यह सुनकर भगवान् ने कहा-“बस, बहुत हो चुका। ऐसा कहने का यहाँ कोई प्रसंग नहीं है। अभी-अभी मैंने जो साधन तुम्हें बतलाये हैं, उन साधनों के द्वारा निःसन्देह तुम मुझे प्राप्त कर सकोगे। हे धनंजय, जिस समय लवण सिन्धु में पड़ता है, उसी समय वह गल जाता है अथवा उसके न गलने के लिये कोई कारण होता है? इसी प्रकार जिस समय प्रत्येक वस्तु में विद्यमान मेरे स्वरूप की भक्ति उत्पन्न हो जायगी, उस समय समस्त विषयों में तुम्हारे मन में आत्मबुद्धि उत्पन्न हो जायगी, तुम्हारा देहाभिमान एकदम समाप्त हो जायगा तथा तुम भी ‘मैं’ ही बन जाओगे। इस प्रकार मैंने तुम्हें यह बात अच्छी तरह से बतला दिया है कि कर्म से आगे बढ़ते-बढ़ते साधनों की मंजिल मेरी प्राप्तिपर्यन्त किस प्रकार आकर पहुँचती है। हे पाण्डुसुत, इस निरन्तर बढ़ने वाली गति का क्रम इस प्रकार है कि यदि समस्त कर्म मुझे समर्पित कर दिये जायँ तो मेरी भावना से चित्त शान्त तथा प्रमुदित हो जाता है; फिर उससे मेरा ज्ञान प्राप्त होता है और उसके द्वारा व्यक्ति मेरे स्वरूप के साथ मिलकर एकाकार हो सकता है। हे पार्थ, उस स्थिति में साध्य अथवा साधन कुछ भी अवशिष्ट नही रह जाता। अपितु यों कहना चाहिये कि उस स्थिति में कुछ भी काम करने के लिये शेष नहीं रह जाता। तुम अपने सब कर्म अनवरत मुझे समर्पित करते रहे हो और यही कारण है कि आज तुम्हें मेरी प्रसन्नता मिली हुई है। इसीलिये इस प्रसन्नता के बल से युद्ध का प्रतिबन्ध समाप्त हो जायगा। मैं एक बार तुम पर मोहित हुआ हूँ और इसलिये अब मैं कभी इस प्रकार की स्थिति नहीं आने दूँगा जिसमें तुम्हें विनती करनी पड़े। जिसके योग से इस प्रपंचसहित अज्ञान का भी नाश होता है और सर्वत्र एकमात्र मैं-ही-मैं दृष्टिगत होने लगता हूँ, उसी ज्ञान का दृष्टान्त इत्यादि के सहयोग से स्पष्ट किया हुआ रूप यह गीता है। मैंने तुम्हें नाना प्रकार से आत्मज्ञान का उपदेश किया है और धर्म-अधर्म की भ्रान्ति पैदा करने वाले जो अज्ञान हैं, उन सबको तुम इस ज्ञान के सहयोग से हटाकर दूर फेंक दो।[1] |
टीका टिप्पडी और संदर्भ
- ↑ (1353-1389)
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