ज्ञानेश्वरी पृ. 800

श्रीज्ञानेश्वरी -संत ज्ञानेश्वर

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अध्याय-18
मोक्ष संन्यास योग

श्रीकृष्ण की ये बातें सुनकर अर्जुन स्तब्ध हो गया। उस समय श्रीदेव ने कहा-“हे पाथ, वास्तव में तुम अत्यन्त गम्भीर हो। यदि भूख से पीड़ित व्यक्ति भोजन परोसने वाले से कुछ संकोचपूर्वक कहे कि बस, अब रहने दो, मेरा पेट भर गया, तो निःसंन्देह स्वयं उस व्यक्ति को ही भूखे रहना पड़ेगा तथा साथ ही उसे मिथ्या भाषण का भी दोष लगता है। ठीक इसी प्रकार सर्वज्ञ सद्गुरु के मिलने पर लज्जावश उनसे आत्मनिर्णय विषयक प्रश्न न करना मानों स्वयं को ही धोखा देना है और अपनी इस भूल के कारण उसे आत्मवंचना का भी पाप लगता है पर हे धनंजय, तुम्हारी इस स्तब्धता से मुझे यह ज्ञात होता है कि एक बार फिर इस ज्ञान की चर्चा हो।”

यह सुनकर अर्जुन ने कहा कि हे भगवन् यदि मैं यह कहूँ कि आपने मेरे अन्तःकरण की बात एकदम समझ ली है तो यह कहना भी कुछ ठीक नहीं लगता है; कारण कि भला इस प्रकार का ज्ञाता भी कहीं मिल सकता है जिसकी तुलना आपके साथ की जा सके? एकमात्र आप ही स्वभावतः उसके ज्ञाता हैं। फिर यदि सूर्य को सूर्य कहकर वर्णन किया जाय तो इससे कौन-सा विशेष अभिप्राय निकल सकता है? यह वचन सुनकर भगवान् ने कहा-“हे पार्थ, तुम्हारे द्वारा यह जो मेरा स्तुतिपूर्ण वर्णन किया गया है, उसे क्या तुम कम समझते हो?[1]

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टीका टिप्पडी और संदर्भ

  1. (1323-1340)

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क्रम संख्या विषय पृष्ठ संख्या
पहला अर्जुन विषाद योग 1
दूसरा सांख्य योग 28
तीसरा कर्म योग 72
चौथा ज्ञान कर्म संन्यास योग 99
पाँचवाँ कर्म संन्यास योग 124
छठा आत्म-संयम योग 144
सातवाँ ज्ञान-विज्ञान योग 189
आठवाँ अक्षर ब्रह्म योग 215
नवाँ राज विद्याराज गुह्य योग 242
दसवाँ विभूति योग 296
ग्यारहवाँ विश्व रूप दर्शन योग 330
बारहवाँ भक्ति योग 400
तेरहवाँ क्षेत्र-क्षेत्रज्ञ विभाग योग 422
चौदहवाँ गुणत्रय विभाग योग 515
पंद्रहवाँ पुरुषोत्तम योग 552
सोलहवाँ दैवासुर सम्पद्वि भाग योग 604
सत्रहवाँ श्रद्धात्रय विभाग योग 646
अठारहवाँ मोक्ष संन्यास योग 681

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