श्रीज्ञानेश्वरी -संत ज्ञानेश्वर
अध्याय-18
मोक्ष संन्यास योग
श्रीकृष्ण की ये बातें सुनकर अर्जुन स्तब्ध हो गया। उस समय श्रीदेव ने कहा-“हे पाथ, वास्तव में तुम अत्यन्त गम्भीर हो। यदि भूख से पीड़ित व्यक्ति भोजन परोसने वाले से कुछ संकोचपूर्वक कहे कि बस, अब रहने दो, मेरा पेट भर गया, तो निःसंन्देह स्वयं उस व्यक्ति को ही भूखे रहना पड़ेगा तथा साथ ही उसे मिथ्या भाषण का भी दोष लगता है। ठीक इसी प्रकार सर्वज्ञ सद्गुरु के मिलने पर लज्जावश उनसे आत्मनिर्णय विषयक प्रश्न न करना मानों स्वयं को ही धोखा देना है और अपनी इस भूल के कारण उसे आत्मवंचना का भी पाप लगता है पर हे धनंजय, तुम्हारी इस स्तब्धता से मुझे यह ज्ञात होता है कि एक बार फिर इस ज्ञान की चर्चा हो।” यह सुनकर अर्जुन ने कहा कि हे भगवन् यदि मैं यह कहूँ कि आपने मेरे अन्तःकरण की बात एकदम समझ ली है तो यह कहना भी कुछ ठीक नहीं लगता है; कारण कि भला इस प्रकार का ज्ञाता भी कहीं मिल सकता है जिसकी तुलना आपके साथ की जा सके? एकमात्र आप ही स्वभावतः उसके ज्ञाता हैं। फिर यदि सूर्य को सूर्य कहकर वर्णन किया जाय तो इससे कौन-सा विशेष अभिप्राय निकल सकता है? यह वचन सुनकर भगवान् ने कहा-“हे पार्थ, तुम्हारे द्वारा यह जो मेरा स्तुतिपूर्ण वर्णन किया गया है, उसे क्या तुम कम समझते हो?[1] |
टीका टिप्पडी और संदर्भ
- ↑ (1323-1340)
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