श्रीज्ञानेश्वरी -संत ज्ञानेश्वर
अध्याय-18
मोक्ष संन्यास योग
अहंकार से, वाणी से, चित्त से तथा देह से उस ईश्वर की शरण में जाओ, जिसकी सत्ता में रहकर वह प्रकृति समस्त कार्य सम्पन्न करती है। “तुम भी ईश्वर में ठीक वैसे ही प्रवेश करो, जैसे गंगाजल महासागर में प्रवेश करता है। फिर उस ईश्वर के कृपा-प्रसाद से तुम्हारा पूर्ण शान्तिरूपी प्रमदा के साथ समागम होगा और तुम आत्मानन्द से निज स्वरूप में रमण करने लगोगे। स्वयं उत्पत्ति भी जिससे उत्पन्न होती है, विश्राम को भी जिस जगह पर विश्राम प्राप्त होता है तथा अनुभव को भी जिस जगह पर अनुभव मिलता है, उस निजात्म पद के तुम अक्षय राजा बनोगे।” उस समय लक्ष्मीनाथ श्रीकृष्ण ने पार्थ से यही बात कही थी।[1]
“समस्त साहित्य का मन्थन करके निकाला हुआ यह गीता नाम का सुप्रसिद्ध सार है, जिससे आत्मा नामक रत्न हाथ लगता है, वेदान्त में जिसका महिमा-गान ‘ज्ञान’ नाम से हुआ है और इसीलिये जिसकी उत्तम कीर्ति सम्पूर्ण जगत् में फैली हुई है, जिसके प्रकाश से बुद्धि इत्यादि शक्तियों में देखने तथा समझने की योग्यता आती है और जिसके द्वारा मैं सर्वद्रष्टा भी दृष्टिगत होता हूँ, वही यह आत्मज्ञान है। मैं तो अव्यक्त हूँ ही और मुझ अव्यक्त भी यह छिपाकर रखा हुआ गुप्त धन है। किन्तु तुमसे मैं अपना यह धन भला किस प्रकार छिपाकर रख सकता हूँ! इसीलिये हे पाण्डुसुत, दया तथा प्रेम से एकदम परिपूर्ण ही जाने के कारण मैंने अपना यह गुप्त खजाना तुम्हारे सम्मुख खोलकर रख दिया है। प्रेमावेश में माता जिस तरह अपने बालक के साथ उन्मुक्त मन से बातें करती है, ठीक उसी तरह हमारी यह प्रीति भी क्या हमें उसी प्रकार की बातों में प्रवृत्त नहीं करेगी? जिस प्रकार आकाश भी गला डाला जाय, अमृत की भी छाल उतार ली जाय अथवा दिव्य को भी और दिव्य बनाया जाय जिसके अंग के प्रकाश से पाताल के परमाणु भी प्रकाशित होते हैं, उस सूर्य की भी आँखों में दिव्यांजन लगाया जाय, उसी प्रकार इस अवसर पर हे धनंजय, मुझ सर्वज्ञ ने भी समस्त दृष्टियों से विचार करके तुम्हें वही बात बतलायी है और जो निश्चयपूर्वक ठीक है। अब तुम इन समस्त बातों पर विचार करके वही काम करो, जो तुम्हें उचित जान पड़े।”
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