श्रीज्ञानेश्वरी -संत ज्ञानेश्वर
अध्याय-18
मोक्ष संन्यास योग
फिर इस अनन्य भक्ति से जब मैं पूर्णतया भर जाऊँगा, तब तुम जान लेना कि मेरा पूर्ण प्रसाद प्राप्त हो गया। जिस समय इस प्रकार की अवस्था प्राप्त हो जायगी, उस समय वे नाना प्रकार के दुःखदायक स्थल भी जो जन्म तथा मृत्यु के कारण भोगने पड़ते हैं तुम्हें सुखदायक जान पड़ने लगेंगे। यदि सूर्य के सहयोग से आँखे बनी हुई हों, तो फिर उनके सम्मुख अँधेरा क्या चीज है? इसी प्रकार मेरी कृपा से जिसका जीव-भाव वाला अंश एकदम नष्ट हो जाता है, उसे इस संसार का हौवा भला किस प्रकार कष्टकारक हो सकता है? अत: हे धनंजय! तुम मेरे प्रसाद से इस संसार की दुर्गति से पार हो जाओगे, पर यदि अहंकार के वशीभूत होकर तुम मेरी इन सब बातों का अपने श्रवणेन्द्रिय तथा मन के साथ स्पर्श भी न होने दोगे, तो तुम नित्यमुक्त और अव्यय होने पर भी व्यर्थ में ही देह-सम्बन्ध के घाव सहते रहोगे। इस देह-सम्बन्ध से कदम-कदम पर आत्मघात की पीड़ा सहनी पड़ती है और उसमें कभी पलभर के लिये भी साँस लेने का अवकाश नहीं मिलता। यदि तुम मेरे वचनों पर ध्यान दोगे तो न मरने पर भी तुम इतने दारुण संकट के कारण मरे हुए की भाँति ही हो जाओगे।[1] |
टीका टिप्पडी और संदर्भ
- ↑ (1269-1277)
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