ज्ञानेश्वरी पृ. 794

श्रीज्ञानेश्वरी -संत ज्ञानेश्वर

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अध्याय-18
मोक्ष संन्यास योग


मच्चित्त: सर्वदुर्गाणि मत्प्रसादात्तरिष्यसि ।
अथ चेत्त्वमहङ्‌कारान्न श्रोष्यसि विनङ्क्ष्यसि ॥58॥

फिर इस अनन्य भक्ति से जब मैं पूर्णतया भर जाऊँगा, तब तुम जान लेना कि मेरा पूर्ण प्रसाद प्राप्त हो गया। जिस समय इस प्रकार की अवस्था प्राप्त हो जायगी, उस समय वे नाना प्रकार के दुःखदायक स्थल भी जो जन्म तथा मृत्यु के कारण भोगने पड़ते हैं तुम्हें सुखदायक जान पड़ने लगेंगे। यदि सूर्य के सहयोग से आँखे बनी हुई हों, तो फिर उनके सम्मुख अँधेरा क्या चीज है? इसी प्रकार मेरी कृपा से जिसका जीव-भाव वाला अंश एकदम नष्ट हो जाता है, उसे इस संसार का हौवा भला किस प्रकार कष्टकारक हो सकता है? अत: हे धनंजय! तुम मेरे प्रसाद से इस संसार की दुर्गति से पार हो जाओगे, पर यदि अहंकार के वशीभूत होकर तुम मेरी इन सब बातों का अपने श्रवणेन्द्रिय तथा मन के साथ स्पर्श भी न होने दोगे, तो तुम नित्यमुक्त और अव्यय होने पर भी व्यर्थ में ही देह-सम्बन्ध के घाव सहते रहोगे। इस देह-सम्बन्ध से कदम-कदम पर आत्मघात की पीड़ा सहनी पड़ती है और उसमें कभी पलभर के लिये भी साँस लेने का अवकाश नहीं मिलता। यदि तुम मेरे वचनों पर ध्यान दोगे तो न मरने पर भी तुम इतने दारुण संकट के कारण मरे हुए की भाँति ही हो जाओगे।[1]

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टीका टिप्पडी और संदर्भ

  1. (1269-1277)

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क्रम संख्या विषय पृष्ठ संख्या
पहला अर्जुन विषाद योग 1
दूसरा सांख्य योग 28
तीसरा कर्म योग 72
चौथा ज्ञान कर्म संन्यास योग 99
पाँचवाँ कर्म संन्यास योग 124
छठा आत्म-संयम योग 144
सातवाँ ज्ञान-विज्ञान योग 189
आठवाँ अक्षर ब्रह्म योग 215
नवाँ राज विद्याराज गुह्य योग 242
दसवाँ विभूति योग 296
ग्यारहवाँ विश्व रूप दर्शन योग 330
बारहवाँ भक्ति योग 400
तेरहवाँ क्षेत्र-क्षेत्रज्ञ विभाग योग 422
चौदहवाँ गुणत्रय विभाग योग 515
पंद्रहवाँ पुरुषोत्तम योग 552
सोलहवाँ दैवासुर सम्पद्वि भाग योग 604
सत्रहवाँ श्रद्धात्रय विभाग योग 646
अठारहवाँ मोक्ष संन्यास योग 681

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