ज्ञानेश्वरी पृ. 793

श्रीज्ञानेश्वरी -संत ज्ञानेश्वर

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अध्याय-18
मोक्ष संन्यास योग


चेतसा सर्वकर्माणि मयि संन्यस्य मत्पर: ।
बुद्धियोगमुपाश्रित्य मच्चित: सततं भव ॥57॥

अत: हे धनंजय! तुम अपने सारे-के-सारे कर्मों का मुझमें ही संन्यास करो। अपने सब कर्म मुझको ही अर्पित करो। पर हे वीर शिरोमणि! यही नित्य कर्मों का संन्यास हैं। तुम अपनी चित्तवृत्ति सदा आत्मविवेक में स्थिर रखो। बस, फिर उसी विवेक के बल से तुम्हें अपना आत्मतत्त्व मेरे उस स्वरूप में निर्मल रूप से दृष्टिगत होने लगेगा, जो समस्त प्रकार के कर्मों से अलिप्त रहता है और उस समय यह बात भी तुम्हारे ध्यान में आ जायगी कि कर्मों की जन्मस्थली जो प्रकृति अथवा माया है, वह भी आत्मा से सुदूर है। फिर हे धनंजय! जैसे किसी वस्तु की छाया उससे पृथक् नहीं हो सकती, ठीक वैसे ही यह प्रकृति भी आत्मतत्त्व से पृथक् नहीं रह सकती। जब इस प्रकार प्रकृति का अवसान हो जायगा, तब समूल कर्म संन्यास स्वतः हो जायगा। फिर कर्मों का अवसान हो जाने पर एकमात्र ‘मैं’ अथवा आत्मतत्त्व ही अवशिष्टि रह जायगा तथा बुद्धि एक पतिपरायणा स्त्री की तरह पूर्ण निष्ठा से उसमें रमण करेगी। इस प्रकार जिस समय बुद्धि अनन्य भक्ति से मुझमें समा जायगी, उस समय चित्त भी अपनी सारी चंचलता त्यागकर मेरा ही भजन करने लगेगा। अत: तुम सदा ऐसी ही चेष्टा करते रहो जिसमें तुम्हारा चित्त सारी चंचलता त्यागकर मुझमें ही आकर मिल जाय।[1]

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टीका टिप्पडी और संदर्भ

  1. (1260-1268)

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क्रम संख्या विषय पृष्ठ संख्या
पहला अर्जुन विषाद योग 1
दूसरा सांख्य योग 28
तीसरा कर्म योग 72
चौथा ज्ञान कर्म संन्यास योग 99
पाँचवाँ कर्म संन्यास योग 124
छठा आत्म-संयम योग 144
सातवाँ ज्ञान-विज्ञान योग 189
आठवाँ अक्षर ब्रह्म योग 215
नवाँ राज विद्याराज गुह्य योग 242
दसवाँ विभूति योग 296
ग्यारहवाँ विश्व रूप दर्शन योग 330
बारहवाँ भक्ति योग 400
तेरहवाँ क्षेत्र-क्षेत्रज्ञ विभाग योग 422
चौदहवाँ गुणत्रय विभाग योग 515
पंद्रहवाँ पुरुषोत्तम योग 552
सोलहवाँ दैवासुर सम्पद्वि भाग योग 604
सत्रहवाँ श्रद्धात्रय विभाग योग 646
अठारहवाँ मोक्ष संन्यास योग 681

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